SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन ३ उद्देशक १ करेंगे (छीन लेंगे) उन्हें तोड़ फोड़ कर फैंक देंगे। अतः साधु साध्वियों का यह पूर्वोपदिष्ट आचार है कि वे इस प्रकार के प्रदेशों में जाने का मन से भी संकल्प न करें। विवेचन - साधु साध्वी को अनार्य क्षेत्रों का त्याग कर ऐसे क्षेत्रों में विचरना चाहिए जहाँ आर्य एवं धर्मनिष्ठ लोग रहते हों । १५३ सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से अरायाणि `वा, गणरायाणि वा, जुवरायाणि वा, दोरज्जाणि वा, वेरज्जाणिवा, विरुद्धरज्जाणि वा सइ लाढे विहाराए संथरमाणेहिं जणवएहिं णो विहारवत्तियाए पवज्जिज्ज गमणाए । केवली बूया आयाणमेयं, ते णं बाला, अयं तेणे तं चेव जाव णो विहारवत्तियाए पवज्जिज्ज गमणाए, तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा ॥ कठिन शब्दार्थ - अरायाणि - अराजक - जिस प्रदेश में राजा के मर जाने से कोई राजा न हो, गणरायाणि - सामंत आदि किसी व्यक्ति विशेष को बहुमत से राजा बनाया गया हो अथवा जहाँ बहुत राजा हों, जुवरायाणि - युवराज, राजकुमार - जिसका राज्याभिषेक नहीं हुआ हो, दोरज्जाणि - दो राज्यों में वैर हो या दो राजाओं का शासन हो, वेरज्जाणिपरस्पर दो राजाओ में वैर विरोध हो, विरुद्धरज्जाणि - विरोधियों का राज्य हो, राजा प्रजा में विरोध हो । भावार्थ - ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु-साध्वी जिस प्रदेश में कोई राजा नहीं हो अथवा अनेकों व्यक्ति राज्य करने वाले हों (बहुत राजा हों) जहाँ के राजकुमार का राज्याभिषेक न हुआ हो, दो राज्य चलते हों अथवा एक- दूसरे राज्य का आपस में विरोध हो, राजा - प्रजा में विरोध हो, तो विहार के अनुकूल अन्य प्रदेश के होते हुए ऐसे अराजक प्रदेशों में विहार करने का संकल्प न करे, क्योंकि केवलज्ञानियों ने इसे कर्म बंध का कारण कहा है। ऐसे स्थानों में जाने पर वहाँ के अनार्य लोग साधु को 'यह चोर है जासूस है' ऐसा कह कर भला-बुरा कहेंगे, नानाविध उपसर्ग देंगे। अत. साधु-साध्वी का यह पूर्वोपदिष्ट आचार है कि वह ऐसे प्रदेशों में विहार करने की इच्छा भी न करे किन्तु आर्य देशों में यतना पूर्वक ग्रामानुग्राम विचरे । भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया- से जं पुण विहं जाणिज्जा एगाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy