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________________ इौषणा नामक तृतीय अध्ययन प्रथम उद्देशक द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में संयम साधना के लिए आवश्यक साधु को कैसा आहार पानी ग्रहण करना चाहिये, इसका उल्लेख किया गया है। द्वितीय अध्ययन में यह . बताया गया है कि ठहरने के लिये साधु को निर्दोष मकान की किस तरह गवैषणा करनी चाहिये। ईर्थेषणा नामक इस तृतीय अध्ययन में ईर्या समिति का वर्णन किया गया है। इस अध्ययन के तीन उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में सूत्रकार फरमाते हैं कि. अब्भुवगए खलु वासावासे अभिपवुढे बहवे पाणा अभिसंभूया बहवे बीया अहुणाभिण्णा अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया जाव ससंताणगा अणभिक्कंता पंथा णो विण्णाया मग्गा सेवं णच्चा णो गामाणुगामं दूइजिज्जा, तओ संजयामेव वासावासं उवल्लिइज्जा॥१११॥ __कठिन शब्दार्थ - अब्भुवगए - सम्मुख आ गया, वासांवासे - वर्षाकाल के, अभिपवुढे - वर्षा हो जाने पर, अभिसंभूया - उत्पन्न हो गये हैं, अहुणाभिण्णा - नये अंकुर उग गये हैं-अंकुरित हो गये हैं, पंथा - मार्ग में, अणभिक्कंता - गमनागमन रुकने से, मग्गा - मार्ग, विण्णाया - पता लगता हो, दूइजिज्जा - विहार करे, उवल्लिइजा - ठहरे, व्यतीत करे। भावार्थ - साधु अथवा साध्वी ऐसा जाने कि - "वर्षा ऋतु आ गयी है, वर्षा हो जाने से बहुत से जीव जंतु पैदा हो गये हैं, बहुत से नये बीज अंकुरित हो गये हैं, पृथ्वी हरी भरी हो गयी है, मार्ग में बहुत से प्राणी, जीव यावत् जाले उत्पन्न हो गये हैं, वर्षा के कारण मार्ग अवरुद्ध हो जाने से मार्ग और उन्मार्ग का पता नहीं लगता।" इस प्रकार जानकर साधु-साध्वी ग्रामानुग्राम विहार न करे, किन्तु वर्षाकाल एक स्थान पर ही व्यतीत करे। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जीव विराधना से बचने के लिए साधु साध्वी को वर्षाकाल में विहार नहीं करते हुए एक स्थान में स्थित होने का आदेश दिया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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