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________________ अध्ययन २ उद्देशक २ . १२५ ......................................................... कठिन शब्दार्थ - महावज किरिया - महावर्ण्य क्रिया-महा वज्र क्रिया। भावार्थ - इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में रहने वाले कई धर्म श्रद्धालु होते हैं, जिन्हें साधु का आचार-गोचर भली प्रकार ज्ञात नहीं होता है। फिर भी वे धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि रखते हुए श्रमणादि को गिन-गिन कर उनके निमित्त मकान बनवाते हैं। जो मुनिराज तथाप्रकार के मकानों में जाकर रहते हैं तो हे आयुष्मन्! उन्हें महावय॑ क्रिया लगती है, वह महावर्ण्य वसति-शय्या है। विवेचन - शंका - गृहस्थ ने शाक्य आदि श्रमणों के लिए मकान बनाया हो और वे उस मकान में ठहर भी चुके हैं तो फिर साधु को उस मकान में ठहरने से उसे महावW क्रिया कैसे लगती है ? . ... समाधान - श्रमण के पांच भेद कहे हैं - १. निर्ग्रन्थ (जैन साधु) २. बौद्ध भिक्षु ३. तापस ४. गैरिक (संन्यासी) और ५. आजीविक (गोशालक मत के साधु)। अतः श्रमण शब्द से जैन साधु का भी ग्रहण हो जाता है अतः जिस मकान को बनाने में जैन साधु का लक्ष्य रखा गया हो उस मकान में पुरुषान्तर कृत होने पर भी जैन साधु को उसमें नहीं ' ठहरना चाहिये। यदि वह उसमें ठहरता है तो उसे महावर्ण्य क्रिया लगती है। यह पहले बताया जा चुका है कि जहाँ 'पगणिय पगणिय' शब्द आता है वहाँ श्रमण शब्द से जैन साधु का भी ग्रहण हो जाता है। यहाँ मूल पाठ में पगणिय-पगणिय शब्द दिया है इससे जैन साधु का भी ग्रहण हो जाता है अतः ऐसे स्थान आधाकर्मी दोष युक्त होने के कारण जैन साधु साध्वी के लिये अकल्पनीय है। 'पगणिय पगणिय' शब्द का आशय यह है कि - किसी दाता ने दान देने की भावना से कोई मकान बनाया और उस समय एक-एक मत के साधुओं के लिये कमरे नियत कर दिये जैसे कि दो कमरे जैन साधुओं के लिये, दो कमरे परिव्राजक साधुओं के लिये, दो कमरे आजीविक मतावलम्बियों के लिये, दो कमरे बौद्ध भिक्षुओं के लिये। इस प्रकार भिन्नभिन्न मतावलम्बी साधुओं के लिये नियत करके बनाये हुए मकान के लिए शास्त्रकार ने 'पगणिय पगणिय' शब्द का प्रयोग किया है। . ७. इह खलु पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा संतेगइया सड्डा भवंति, जाव तं रोयमाणेहिं बहवे समणजाए समुहिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराई चेइयाई भवंति तं जहा-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा जे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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