SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध एएसिं कप्पड़ मेहुणधम्मं परियारणाए आउट्टित्तए, जा य खलु एएसिं सद्धिं मेहुणधम्मं परियारणाए आउट्टाविज्जा पुत्तं खलु सा लभिज्जा, ओयस्सिं तेयस्सिं वच्चस्सिं जसस्सिं संपराइयं आलोयणदरिसणिज्जं एयप्पगारं णिग्घोसं सुच्चा णिसम्म तासिं च णं अण्णयरी सड्डी तं तवस्सिं भिक्खुं मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टाविज्जा । अह भिक्खू णं पुव्वोवइट्ठा जाव जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइज्जा ॥ ११४ एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं ॥ ७१ ॥ ।। पढमो उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ- मेहुणाओ धम्माओ मैथुन धर्म से अर्थात् मैथुन रूपी पाप से, उवरया - उपरत (निवृत्त), परियारणाए - सेवन करने के लिए, आउट्टित्तए - सन्मुख होना ( अभिलाषा करना), ओयस्सिं ओजस्वी, तेयस्सिं तेजस्वी, वच्चसिं - वर्चस्वी (रूपवान), - - Jain Education International - जसस्सिं - यशस्वी, संपराइयं - संग्राम में शूर । भावार्थ - गृहस्थों के संसर्ग वाले स्थान में ठहरना साधु के लिए कर्म बंध का कारण है। क्योंकि गृहस्थ के घर पर उनकी पत्नियाँ, पुत्रियाँ, पुत्रवधुएं, धायमाताएँ, दासियाँ, कर्मचारिणियां (नौकरानियाँ) एक दूसरे को इस प्रकार कहे कि - "ये जो श्रमण भगवंत हैं मैथुन रूपी पाप से निवृत्त हो चुके हैं अर्थात् इन्हें स्त्रियों के साथ मैथुन सेवन करना नहीं कल्पता है परन्तु जो कोई स्त्री इनके साथ संभोग करती है तो उसे ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी - रूपवान, यशस्वी, संग्राम में शूर (विजयी) और दर्शनीय पुत्र की प्राप्ति होती है । " इस प्रकार के शब्द सुनकर कोई पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा रखने वाली स्त्री उस तपस्वी साधु को विचलित कर कामभोगों के सेवन के लिए आकर्षित करे। अतः मुनि का यह पूर्वोपदिष्ट आचार है कि वह गृहस्थों से युक्त मकान में निवास, शय्या और स्वाध्याय न करे । यही साधु-साध्वियों का सम्पूर्ण आचार है । विवेचन - साधु साध्वी को अपने संयम में एवं ब्रह्मचर्य की रक्षा में सदैव सावधान रहना चाहिए क्योंकि ब्रह्मचर्य साधना का प्रमुख अंग है अतः साधु साध्वी को ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिये जहाँ ब्रह्मचर्य व्रत में तनिक भी दोष लगने की संभावना हो । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy