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________________ ९६ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••.............. खाये तो यह आहार हमारे पास ले आना। इस प्रकार सुन कर आहार लेने वाला मुनि उत्तर दे कि-यदि मुझे कोई अंतराय (विघ्न) न हुआ तो मैं इस आहार को वापिस लाकर दे दूंगा। ऐसा कह कर वह मुनि आहार लाकर रोगी साधु को न दे और स्वयं खा जाये अथवा रोगी साधु को वह आहार बतावे और रोगी साधु उसे न खावे तब पूर्व कथनानुसार उस आहार को उन मुनियों को वापिस देने के लिये न जावे या बहाना बना दे तो ऐसा रस लोलुपी साधु मातृस्थान का स्पर्श करता है अर्थात् साधु आचार का उल्लंघन करता है। इसे कर्म बंध का कारण जानकर साधु साध्वी को ऐसा नहीं करना चाहिये। विवेचन - पूर्व सूत्र में कथित विषय को प्रस्तुत सूत्र में विशेष स्पष्टता के साथ बताया गया है। अह भिक्खू जाणिज्जा सत्त पिंडेसणाओ सत्त पाणेसणाओ। तत्थ खलु इमा पढमा पिडेसणा-असंसटे हत्थे असंसटे मत्ते-तहप्पगारेण असंसद्वेण हत्थेण वा मत्तेण वा असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा सयं वा णं जाइजा परो . वा से दिज्जा, फासुयं पडिग्गाहिज्जा। पढमा पिंडेसणा॥ ___कठिन शब्दार्थ - पिंडेसणाओ - पिंडैषणा-आहार लेने की प्रतिज्ञा, पाणेसणाओ - पानैषणा-पानी लेने की प्रतिज्ञा, असंसट्टे - अलिप्त, सयं - स्वयं, हत्थे - हाथ, मत्ते - पात्र। . __ भावार्थ - साधु को सात पिंडैषणाएँ और सात पाणैषणाएँ जाननी चाहिये। उनमें से पहली पिंडैषणा यह है कि किसी भी वस्तु से हाथ और पात्र भरा हुआ (लिप्त) न हो। ऐसे अलिप्त हाथ और पात्र से मिलते हुए आहार की स्वयं याचना करे अथवा अन्य कोई गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक और एषणीय जान कर ग्रहण करे। यह प्रथम पिंडैषणा है। अहावरा दोच्चा पिंडेसणा-संसटे हत्थे संस? मत्ते तहेव दुच्चा पिंडेसणा॥ भावार्थ - दूसरी पिंडैषणा यह है कि अचित्त वस्तु से हाथ और पात्र लिप्त हों तो पूर्ववत् प्रासुक और एषणीय जान कर आहार ग्रहण करे। यह द्वितीय पिंडैषणा है। अहावरा तच्चा पिंडेसणा-इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहिणं वा, उदीणं वा संतेगइया सड्ढा भवंति-गाहावई वा जाव कम्मकरी वा तेसिं च णं अण्णयरेसु विरूवरूवेसु भायणजाएसु उवणिक्खित्त-पुव्वे सिया तंजहा - थालंसि वा, पिढरंसि वा, सरगंसि वा, परगंसि वा, वरगंसि वा, अह पुण एवं जाणिज्जा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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