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प्रथम अध्ययन
पांचवां उद्देशक
अनगार-लक्षण
३६
ॐ श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री भी
कारण जान कर स्वयं अग्निकाय का, समारम्भ न करे, न दूसरों से अग्निकाय का समारम्भ करवाएं और अग्निकाय का समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी न करे ।
जिसने अग्निकाय के समारम्भ को जान कर त्याग दिया है वही मुनि परिज्ञातकर्मा होता है - ऐसा मैं कहता हूँ ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र का सार यही है कि मुमुक्षु अग्निकायिक जीवों पर किये जाने वाले शस्त्र प्रयोग से जो उन्हें वेदना होती है और इससे जो कर्म बन्ध होता है उसे समझे और तीन करण तीन योग से अग्निकाय के आरम्भ का त्याग करे ।
त्ति बेमि अर्थात् - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य श्री जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् - जम्बू ! जिस प्रकार मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना था उसी प्रकार मैं तुम्हें कहता हूँ ।
॥ इति प्रथम अध्ययन का चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ पठमं अज्झयणं पंचमो उद्देसो
प्रथम अध्ययन का पांचवां उद्देशक
प्रथम अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में अग्निकाय का वर्णन करते हुए उसके आरम्भसमारम्भ के त्याग की प्रेरणा की गयी है। इस पांचवें उद्देशक में वनस्पतिकाय का वर्णन किया जाता है। यद्यपि अग्निकाय के पश्चात् वायुकाय का वर्णन करना चाहिये था किन्तु वायुकाय अचाक्षुष - आंखों से नहीं दिखाई देने वाला होने से उसका ज्ञान कठिनता से होता है। वनस्पतिकाय तो सब को प्रत्यक्ष दिखाई देती है। उसका ज्ञान होना सरल है इसलिए सूत्रकार ने इस उद्देशक में पहले वनस्पतिकाय का वर्णन किया है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है
अनगार - लक्षण
(३८)
तं णो करिस्सामि समुट्ठाए मत्ता मइमं, अभयं विइत्ता, तं जे णो करए, एसोवरए, एत्थोवरए, एस अणगारे त्ति पवुच्चइ |
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