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________________ ३४० आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR8888888888888888888888888 मतिमान् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने बहुत बार निदान रहित इस विधि का आचरण किया था। इसलिए मोक्षार्थी आत्माओं को इस विधि का आचरण करना चाहिए। ना मैं कहता विवेचन - प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि भगवान् ने किसी के उपदेश से दीक्षा नहीं ली थी, वे स्वयंबुद्ध थे। अपने ही ज्ञान के द्वारा उन्होंने साधना पथ को स्वीकार किया और मन, क्चन, काया को वश में करके जीवन पर्यंत समिति गुप्ति युक्त होकर साधना रत रहे और अपनी साधना के द्वारा घाती कर्मों को क्षय करके सर्वज्ञ सर्वदर्शी बने और अंत में शेष अघाती कर्मों का भी क्षय करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। .. प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने पूर्वोक्त वर्णित संयम विधि का स्वयं पालन किया है और आत्म-विकास के अभिलाषी इस विधि का आचरण करते हैं अतः अन्य मोक्षार्थी पुरुषों को भी उनका अनुकरण करना चाहिये। ॥ इति नववें अध्ययन का चौथा उद्देशक समाप्त। ॥ उपधान श्रुत नामक नवम अध्ययन समाप्त॥ ॥ इति श्री आचारांग श्रुत का ब्रह्मचर्य नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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