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- पांचवाँ अध्ययन - छठा उद्देशक - मुक्तात्मा का स्वरूप
२१७ @@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ आदि विशेषणों से रहित है क्योंकि ये सब पुद्गल-जड़ में ही पाये जाते हैं। मुक्त जीव में इनमें से कुछ भी नहीं पाया जाता है इसलिये उसका वाचक कोई शब्द नहीं है। उसकी अवस्था शब्दों द्वारा अवर्णनीय है।
यहाँ सूत्र क्रमांक ३३२-३३३ के मूल पाठ में बतलाया गया है कि - सिद्ध भगवान् में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श कुछ नहीं है। इस पर विचार करना है कि चैत्र मास और आसोज मास में कुछ सन्त सतियों द्वारा नवपद की आयंबिल की ओली कराई जाती है। उसमें सिद्ध भगवान् का रंग लाल बताकर लाल अनाज (गेहूँ आदि) खाने की प्रेरणा दी जाती है वह उचित नहीं है। सिद्ध भगवान् में लाल रंग बतलाना आगम विपरीत है। बाकी चार पदों में अरहन्त का रंग सफेद, आचार्य का रंग पीला, उपाध्याय का रंग हरा और साधु का रंग काला बताने की कल्पना भी आगमानुकूल नहीं है। क्योंकि इस प्रकार रंगों का विवरण किसी भी आगम में नहीं है।
अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु ये पद पांच ही हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप तो. इनके गुण हैं। गुण, गुणी को छोड़ कर अलग नहीं रहते हैं अतः इनकों अलग पद गिनना उचित नहीं है।
आयंबिल, एक तप है। उसका अपना महत्त्व है किन्तु उपवास से आयंबिल का फल अधिक होता है यह कहना उचित नहीं है तथा यह कहना भी उचित नहीं है कि जब तक द्वारिका में आयंबिल तप होता रहा तब तक द्वारिका की रक्षा होती रही और जिस दिन आयंबिल.हुआ नहीं उस दिन द्वीपायन बालतपस्वी के द्वारा जला दी गई। यह कथन आगमानुकूल नहीं है क्योंकि किसी भी आगम में इस प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता है। आयंबिल लूखा
और अलूणा आहार द्वारा किया जाता है उसमें अचित्त नमक आदि का प्रयोग भी नहीं करना चाहिये। आयंबिल अच्छा तप है। इसमें रसनेन्द्रिय को जीता जाता है। इसके लिए कोई तिथि या मास निश्चित नहीं है। यह कभी भी किया जा सकता है। सबका फल एक सरीखा है। आयंबिल की ओली के दिनों में श्रीपाल चरित्र पढ़ने की परिपाटी भी है किन्तु श्रीपाल चरित्र में सांसारिक लालसाएं बताई गई हैं। इसलिए उसे पढ़ना भी उचित नहीं है। इसमें किसी भी प्रकार की सांसारिक लालसाएं नहीं होनी चाहिये किन्तु केवल निर्जरा की भावना से करना चाहिये। ।
॥ छहा उद्देशक समाप्त। ॥ इति लोकसार नामक पांचवां अध्ययन समाप्त।
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