SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 445
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२० अनुयोगद्वार सूत्र आराधना करते हैं तथा चार उनकी सेवा में संलग्न रहते हैं। व्यवस्था को देखने की दृष्टि से एक साधु को कल्पाचार्य मनोनीत किया जाता है। अगले छह मास में वे साधु जो प्रथम छह मास में सेवा करते थे, तप स्वीकार करते हैं और तपस्यानुरत साधु सेवा कार्य करते हैं, कल्पाचार्य वे ही रहते हैं। तृतीय छह मास में वह साधु जो पिछले १२ (बारह) मास तक कल्पाचार्य रहा, वह तपश्चरण करता है और शेष आठ साधुओं में से किसी एक को कल्पाचार्य नियुक्त किया जाता है एवं सात साधु सेवा करते हैं। इस तप के आराधक मुनि ग्रीष्मकाल में कम से कम एक उपवास, मध्यम दो उपवास तथा उत्कृष्ट रूप में तीन उपवास (तेला) करते हैं। तदनंतर पारणा करते हैं। इस प्रकार यह क्रम चलता रहता है। शीतकाल में (जघन्यतः) द्विदिवसीय (बेला), (मध्यमतः) त्रिदिवसीय (तेला) एवं (उत्कृष्टतः). चतुर्दिवसीय (चौला) विहित है। इसी प्रकार वर्षाकाल में (जघन्यतः) त्रिदिवसीय, (मध्यमतः) चतुर्दिवसीय एवं (उत्कृष्टतः) पंचदिवसीय उपवास करणीय है। ४. सूक्ष्मसंपराय चारित्र - संपराय जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ जगत् या लोक प्रवाह है, जन्म-मरण रूप आवागमन है। संसारपरिभ्रमण के मुख्य हेतु क्रोध, मान, माया एवं लोभ रूप कषाय हैं। कारण का कार्य में उपचार करने से कषाय भी संपराय कहे जाते हैं। वह चारित्र जिसमें केवल संज्वलनात्मक लोभ रूप कषाय सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता है और क्रोध, मान, माया रूप, तीनों कषाय उपशांत या क्षीण हो जाते हैं, उसे सूक्ष्मसंपराय चारित्र कहते हैं। ___"कषाय मुक्तिः किल मुक्तिरेव" - के अनुसार कषायों से सर्वथा विमुक्त हो जाने पर ही मोक्ष या निर्वाण प्राप्त होता है। सूक्ष्मसंपराय चारित्र के संक्लिश्यमान और विशुद्ध्यमान के रूप में दो भेद निरूपित हुए हैं। क्षपक श्रेणी अथवा उपशम श्रेणी पर आरूढ़ साधक का चारित्र विशुद्ध्यमान कहा जाता है। उपशम श्रेणी से उपशांत मोह गुणस्थान नामक ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच कर वहाँ से गिर जाने पर साधक जब पुनः दशम गुणस्थान में आता है, उस समय उसका सूक्ष्मसंपराय चारित्र संक्लिश्यमान के रूप में अभिहित होता है। क्योंकि उस प्रतिपाति या पतनोन्मुखी दशा में संक्लेश का आधिक्य रहता है, अर्थात् संक्लेश ही वहाँ पतन का कारण है। इसीलिए विशुद्ध्यमान को अप्रतिपाती एवं संक्लिश्यमान को प्रतिपाती - पतनशील भी कहा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy