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________________ भावानुपूर्वी का विवेचन १४५ चतुर्विध ज्ञानावरण के क्षयोपशम से मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय आविर्भूत होते हैं। त्रिविध अज्ञानावरण के क्षयोपशम से मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अवधि ज्ञान प्रकट होते हैं। त्रिविध दर्शनावरण के क्षयोपशम से चक्षु-दर्शन, अचक्षु-दर्शन एवं अवधि-दर्शन का उद्भव होता है। पंचविध अन्तराय के क्षयोपशम से दान-लाभादि पांच लब्धियों की प्राप्ति होती है। अनन्तानुबंधी चतुष्क - क्रोध, मान, माया, लोभ तथा दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से सम्यक्त्व उपलब्धि होती है। अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वल रूप क्रोध, मान, माया, लोभ के क्षयोपशम से चारित्र - सर्वविरति का भाव समुदित होता है। अनन्तानुबंधी - क्रोध, मान, माया, लोभ तथा प्रत्याख्यानावरण - क्रोध, मान, माया, लोभइन आठ के क्षयोपशम से देश-विरति का भाव प्रकटित होता है। इस प्रकार ऊपर अठारह क्षायोपशमिक पर्यायों का निर्देश किया गया है। ५. पारिणामिक - द्रव्यों के परिणामात्मक भाव पारिणामिक हैं। जीवत्व, भव्यत्व एवं अभव्यत्व आदि भाव उन्हीं में समाविष्ट हैं। द्रव्य का स्वाभाविक स्वरूपात्मक परिणमन, पारिणामिक भाव है अर्थात् ये द्रव्य के मूल स्वभाव रूप में हैं। अतः ये न तो कर्मों के उदय से, न उपशम से, न क्षय से और न ही क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। अनादि सिद्ध आत्म द्रव्य के साथ परिणति रूप में सम्बद्ध होने के कारण ही ये पारिणामिक हैं। जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व - ये तीन उनमें मुख्य भाव हैं। इसके अतिरिक्त अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, गुणत्व, प्रदेशत्व, असंख्यात प्रदेशत्व, असर्वगतत्व, अरूपत्व आदि भी यहाँ गणनीय हैं। ६. सान्निपातिक - 'एकाधिकानां निपतनं मेलनं वा सन्निपातः' - एक से अधिक का मिलना सन्निपात कहा जाता है। सन्निपात से 'सान्निपातिक' विशेषण निष्पन्न होता है। भावों के साथ संलग्न यह विशेषण एकाधिक भावों के मिलन या मिश्रण का द्योतक है। यह सन्निपात शब्द आयुर्वेद शास्त्र में भी विशेष रूप से प्रचलित है। वात, पित्त, कफ - जब तीनों दोष मिल जाते हैं तब उसे सन्निपात कहा जाता है। रोगी की वह दशा सान्निपातिक कही जाती है। इसमें रोगी उन्माद ग्रस्त हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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