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________________ समवायांग सूत्र वर्षों से आहार की इच्छा पैदा होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो पन्द्रह भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ १५ ॥ विवेचन - अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम होने के कारण जो परम (उत्कृष्ट) अधार्मिक होते हैं उन्हें परमाधार्मिक कहते हैं। ये असुरकुमार जाति के भवनपति देव हैं। ये तीसरी तरक तक जाकर नैरयिकों को दुःख देते हैं। इससे आगे जाने की इनकी शक्ति नहीं है। आगे के नरकों में नैरयिक जीव परस्पर लड़ते झगड़ते रहते हैं और परस्पर ही दुःख देते है। जैसा की तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है परस्परोदीरितदुःखाः ।। ४ ॥ संक्लिष्टासुरोगीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥ ५ ॥३/३,४ ७४ IKKICK - तीसरी नरक तक परमाधार्मिक दुःख देते हैं और परस्पर भी लड़ते झगड़ते रहते हैं । चौथी से सातवीं तक नैरयिक जीव परस्पर ही लड़ते झगड़ते रहते हैं। यह दुःख भी परमाधार्मिकों द्वारा दिये हुए दुःख से भी अधिक दुःख होता है। जैसे कि यहाँ तिर्यञ्च और मनुष्य कुत्तों की जाति को कभी कभी दुःख दे देते हैं । किन्तु कुत्ते परस्पर लड़ते झगड़ते ही रहते हैं । परमाधार्मिक देव जो दुःख देते हैं उसका वर्णन भावार्थ में कर दिया गया है। नैरयिकों को दुःख देने से परमाधार्मिक देवों को नया कर्म बन्ध होता है। ऊपर राहू के दो भेद बताये गये हैं- इस विषय में यह शंका की गई है कि - चन्द्रमा का विमान तो एक योजन के ६१ भागों में से ५६ भाग लम्बा चौड़ा है। ध्रुव राहू रूप ग्रह का विमान तो आधा योजन ही लम्बा चौड़ा है। फिर वह चन्द्रमा की कला को ढक कर सर्व आवरण रूप (चन्द्रोपराम) चन्द्रग्रहण कैसे कर सकता है ? इसका समाधान दो तरह से दिया गया है कि ज्योतिष शास्त्र में बतलाया गया है कि राहु का विमान आधा योजन है यह प्रायिक (सामान्य) कथन है। क्योंकि राहु के विमान को ज्योतिष ग्रंथ में एक योजन प्रमाण भी बतलाया गया है। दूसरा समाधान यह दिया गया है कि - यद्यपि राहु का विमान छोटा है परन्तु उसकी अन्धकार की किरणों का समूह बहुत और सघन है इसलिये वह सम्पूर्ण चन्द्र को आवृत्त (ढ़क) कर लेता है । अतः इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं है। तेरहवें बोल में तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियों के तेरह योगों का वर्णन किया गया है। क्योंकि उनके तेरह ही योग होते हैं। आहारक और आहारक मिश्र नहीं होता । मनुष्य के पन्द्रह ही योग होते हैं। Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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