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________________ समवाय ११ श्रावक श्रमणभूत यानी साधु के समान होता है। उसकी सारी क्रियाएं साधु के समान होती है। वह भिक्षावृत्ति से अपना निर्वाह करता है किन्तु इतना फर्क है कि उसका अपने सम्बन्धियों से रागबन्धन सर्वथा छूटता नहीं है इसलिए वह उन्हीं के घर भिक्षा लेने को जाता है। उसका वेष भी साधु के समान होता है। किन्तु वह सिर पर शिखा-चोटी रखता है। यदि उसे कोई पूछे कि - आप कौन हैं? तो उसे स्पष्ट उत्तर देना चाहिए कि - "मैं पडिमाधारी श्रावक हूँ, साधु नहीं।" इस पडिमा का उत्कृष्ट समय ग्यारह मास है। सब पडिमाओं का समय मिला कर साढे पांच वर्ष होते हैं। लोक के अन्तिम भाग से ११११ योजन की दूरी पर ज्योतिषचक्र का अन्त हो जाता है। इस जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से ११२१ योजन की दूरी पर ज्योतिषचक्र परिभ्रमण करता है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर थे उनके नाम इस प्रकार हैं - १. इन्द्रभूति २. अग्निभूति ३. वायुभूति ४. व्यक्त भूति ५. सुधर्मा स्वामी ६. मण्डितपुत्र ७. मौर्यपुत्र ८. अकम्पित ९. अचलभ्राता १०. मेतार्य ११. प्रभासस्वामी। मूला नक्षत्र ग्यारह तारों वाला कहा गया है। नीचे की त्रिक वाले ग्रैवेयक देवों के १११ विमान होते हैं, ऐसा कहा गया है। मेरु पर्वत पृथ्वीतल से लेकर शिखर पर्यन्त ऊंचाई में ग्यारहवें भाग कम होता जाता है। जैसे कि मेरु पर्वत मूल में दस हजार योजन का चौड़ा है। मूल भाग से ग्यारह अंगुलं ऊपर जाने पर एक अङ्गल चौड़ाई कम हो जाती है। ग्यारह योजन जाने पर एक - योजन चौड़ाई कम हो जाती है और ग्यारह सौ यौजन जाने पर एक सौ योजन और ग्यारह '' हजार योजन जाने पर एक हजार योजन चौड़ाई कम हो जाती है। इस तरह ९९ हजार योजन जाने पर नौ हजार योजन चौड़ाई कम हो जाती है। इस प्रकार शिखर पर एक हजार योजन का चौड़ा रह जाता है। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति ग्यारह पल्योपम की कही गई है। धूमप्रभा नामक पांचवीं नरक में कितनेक नैरयिकों की ग्यारह सागरोपम की स्थिति कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति ग्यारह पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति ग्यारह पल्योपम की कही गई है। छठे लान्तक देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति ग्यारह सागरोपम की कही गई है। लान्तक देवलोक के अन्तर्गत ब्रह्म, सुब्रह्म, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मप्रभ, ब्रह्मकान्त, ब्रह्मवर्ण, ब्रह्मलेश्य, ब्रह्मध्वज, ब्रह्मश्रृङ्ग, ब्रह्मसृष्ट या ब्रह्मसिद्ध, ब्रह्मकूट. और ब्रह्मोत्तरावतंसक इन बारह विमानों में जो देव देव रूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की स्थिति ग्यारह सागरोपम की कही गई है। वे देव ग्यारह पखवाड़ों से आभ्यंतर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को ग्यारह हजार वर्षों से आहार की इच्छा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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