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________________ समवायांग सूत्र १०. पद्मसृष्ट अथवा पद्मसिद्ध ११ पद्मकूट १२. पद्मोत्तरावतंसक १३ सूर्य १४. सुसूर्य १५. सूर्यावर्त १६. सूर्यप्रभ १७. सूर्यकान्त १८. सूर्यवर्ण १९. सूर्यलेश्य २०. सूर्यध्वज २१. सूर्यश्रृङ्ग २२. सूर्यसृष्ट या सूर्यसिद्ध २३. सूर्यकूट २४. सूर्योत्तरावत्तसंक २५. रुचिर २६. रुचिरावर्त २७. रुचिरप्रभ २८. रुचिरकान्त २९. रुचिरवर्ण ३०. रुचिरलेश्य ३१. रुचिरध्वज, ३२. रुचिरश्रृङ्ग ३३. रुचिरसृष्ट या रुचिरसिद्ध ३४. रुचिरकूट, ३५. रुचिरोतरावतंसक। इन पैंतीस विमानों में जो देव देवरूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की स्थिति नौ सागरोपम की कही गई है। वे देव नौ पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को नौ हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव जो नौ भवं ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ ९ ॥ विवेचन - जैन सिद्धान्त में ब्रह्मचर्य का बड़ा महत्त्व बतलाया गया है। जैसे खेत में बोए हुए धान की सुरक्षा के लिये किसान खेत के चारों तरफ कांटों की बाड़ लगाता है। उसी प्रकार ब्रह्मचर्य रूप धान की रक्षा के लिये शास्त्रकारों ने एक बाड़ नहीं किन्तु नौ नौ बाड़ बतलाई है तथा जिस प्रकार नगर की सुरक्षा के लिये उसके चारों तरफ कोट लगाया जाता है। उसी प्रकार इस ब्रह्मचर्य रूपी नगर की सुरक्षा के लिये नौ बाड़ लगाने के बाद दसवां कोट भी लगाया है। जिसका वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के १६ वें अध्ययन में है। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए यदि प्राण भी देने पड़े तो आत्मघात करके प्राण दे दे। किन्तु ब्रह्मचर्य खण्डित . न करें। आत्मघात करना यद्यपि बाल मरण है। तथापि ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये आत्मघात करने को ज्ञानियों ने पण्डित मरण कहा है। विषय भोगों को किम्पाक फल की उपमा दी है। किम्पाक फल देखने में सुन्दर और खाने में मीठा लगता है। किन्तु खाने के बाद उसका परिणाम बड़ा भयंकर होता है। अर्थात् मृत्यु देने वाला होता है। उसी प्रकार विषय भोग भोगते समय तो अच्छे लगते हैं किन्तु उनका परिणाम बड़ा भयंकर होता है। वे एक भव नहीं अनेक भवों में दुःख और दुर्गति को देने वाले होते हैं कहा भी है - "खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा ।" । हिन्दी में भी कहा है - काम भोग प्यारा लगे, फल किम्पाक समान । . मीठी खाज खुजावतां, पीछे दुःख की खान ॥ तप जप संयम दोहिला, औषध कड़वी जाण। · सुख कारण पीछे घणां, निश्चय पद निर्वाण ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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