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________________ समवाय८ ३७ फैलाता है। फिर उस दण्ड का लोक पर्यन्त कपाट (किंवाड़) बनाता है। तीसरे समय में दक्षिण और उत्तर अथवा पूर्व और पश्चिम दिशा में लोकान्त तक आत्म प्रदेशों को फैला कर उसी कपाट को मथानी रूप बना देता है। ऐसा करने से लोक का अधिकांश भाग आत्म प्रदेशों से व्याप्त हो जाता है। किन्तु मथानी की तरह अन्तराल प्रदेश खाली रहते हैं। चौथे समय में मथानी के अन्तरालों को पूर्ण करता हुआ समस्त लोकाकाश को आत्म प्रदेशों से व्याप्त कर देता है। क्योंकि लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश बराबर हैं। पांचवें समय में मथानी के अन्तरालों को वापिस खींचता है - संकोच करता है। छठे समय में मथानी को वापिस खींचता है। सातवें समय में कपाट को वापिस खींचता है। आठवें समय में दण्ड को वापिस खींचता है। इसके बाद सब आत्म प्रदेश पुनः शरीरस्थ हो जाते हैं। पुरुषादानीय अर्थात् पुरुषों में श्रेष्ठ भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी के आठ गण और आठ गणधर थे। यथा - शुभ शुभघोष, वशिष्ठ, ब्रह्मचारी, सोम, श्रीधर, वीरभद्र और यशोभद्र। आठ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ प्रेमर्द योग करते हैं अर्थात् चन्द्रमा इन नक्षत्रों के बीच में होकर निकलता है। उनके नाम ये हैं - कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति आठ पल्योपम की कही गई है। पंकप्रभा नामक चौथी नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति आठ सागरोपम की कही गई है। असुरकुमार देवों में कितनेक देवों की स्थिति आठ पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति आठ पल्योपम की कही गई हैं। पांचवें ब्रह्म देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति आठ सागरोपम की कही गई है। पांचवें ब्रह्म देवलोक के अन्तर्गत अर्चि, अर्चिमाली, वैरोचन, प्रभङ्कर, चन्द्राभ, सूर्याभ, सुप्रतिष्ठाभ, अग्न्याभ, रिष्टाभ, अरुणाभ, अरुणोत्तरावतंसक, इन ग्यारह विमानों में जो देव देव रूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति आठ सागरोपम की कही गई है। वे देव आठ पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को आठ हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। जो भवसिद्धिक जीव हैं उन में से कितनेक जीव आठ भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ ८॥ - विवेचन - किसी बात का अभिमान करना 'मद' कहलाता है। मदस्थान आठ कहे गये हैं। जाति कुल आदि का अभिमान करने से नीच गोत्र का बन्ध होता है और अभिमान न करने से उच्च गोत्र का बन्ध होता है। तीर्थङ्कर भगवन्तों की द्वादशांग रूप वाणी को प्रवचन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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