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________________ ४१६ समवायांग सूत्र पंजलिउडा - तीर्थङ्कर भगवान् की भक्ति से दोनों हाथ जोड़ कर खड़े हुए, पडिलाइ प्रतिलाभित किया, संवच्छरेण - एक वर्ष के बाद, भिक्खा - भिक्षा, लद्धा - मिली, खोयरसो - इक्षुरस, अमियरसरसोवमं- अमृतरस के समान, परमण्णं- परमान्न यानी खीर, सरीरमेत्तीओ - शरीर परिमाण, वसुधाराओ- वसुधारा- सोना मोहर, बुट्ठाओ - वृष्टि हुई, सरीरमेत्तीओ - तीर्थङ्कर के शरीर परिमाण । भावार्थ - इन चौबीस तीर्थङ्करों को प्रथम भिक्षा देने वाले चौबीस व्यक्ति थे, उनके नाम इस प्रकार हैं १. श्रेयांस, २. ब्रह्मदत्त, ३. सुरेन्द्रदत्त, ४ इन्द्रदत्त, ५. पद्म, ६. सोमदेव, ७. माहेन्द्र, ८. सोमदत्त, ९. पुष्य, १०. पुनर्वसु, ११. पूर्णनन्द, १२. सुनन्द, १३. जय, १४. विजय, १५. धर्मसिंह, १६. सुमित्र, १७. वर्गसिंह, १८. अपराजित, १९. विश्वसेन, २०. ऋषभसेन, २१. दिन्न - दत्त, २२. वरदत्त, २३. धनदत्त और २४. बहुल । विशुद्ध लेश्या वाले और तीर्थङ्कर भगवान् की भक्ति से दोनों हाथ जोड़ कर खड़े हुए उपरोक्त चौबीस व्यक्तियों ने उस काल उस समय में तीर्थङ्करों को प्रतिलाभित किया अर्थात् सर्व प्रथम आहार बहराया था इसलिए आगम में इनको प्रथम भिक्षा दाता कहा है।। २७-३० ॥ लोकनाथ भगवान् ऋषभदेव स्वामी को दीक्षा लेने के एक वर्ष बाद प्रथम भिक्षा मिली थी। शेष २३ तीर्थङ्करों को दीक्षा लेने के दूसरे दिन प्रथम भिक्षा मिली थी । । ३१ ॥ लोक के नाथ भगवान् ऋषभदेव स्वामी को प्रथम भिक्षा में इक्षुरस मिला था, शेष २३ तीर्थङ्करों को अमृतरस के समान परमान्न यानी खीर मिली थी । । ३२ ॥ जब सब तीर्थङ्करों को प्रथम भिक्षाएं मिली थी तब वहाँ पर तीर्थङ्करों के शरीर परिमाण सोना मोहरों की वृष्टि हुई थी । । ३३ ॥ विवेचन - जम्बूद्वीप पण्णत्ती सूत्र के दूसरे वक्षस्कार में भगवान् ऋषभदेव की दीक्षा के सम्बन्ध का पाठ इस प्रकार है - पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ अभिसिंचित्ता तेसीइं पुव्वसय सहस्साइं महारायवासमझे वसइ वसित्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स णवमीपक्खेणं दिवसस्से पच्छिमे भागे । अर्थ - सौ पुत्रों को सौ जगह का राज्य देकर और ८३ लाख पूर्व गृहस्थ अवस्था में रह कर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास अर्थात् चैत्र मास की बहुल ( वदी पक्ष ) पक्ष की नवमीं तिथि को ऋषभदेव स्वामी ने दीक्षा अङ्गीकार की थी। दीक्षा के समय बेले की तपश्चर्या थी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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