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________________ ३६४ समवायांग सूत्र भावार्थ - श्री गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि - हे भगवन्! असुरकुमारों के कितने आवास कहे गये हैं ? भगवान् फरमाते हैं कि - हे गौतम् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाईजाड़ाई एक लाख अस्सी हजार योजन है। उसमें से ऊपर एक हजार योजन छोड़ कर और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर बीच में एक लाख अट्ठहत्तर हजार योजन है। रत्नप्रभा पृथ्वी के इस मध्य भाग में असुरकुमार देवों के ६४ लाख आवास - भवन कहे गये हैं। वे भवन बाहर से गोल, भीतर से चतुरस्र-चौकोण और नीचे पुष्करकर्णिका के आकार हैं। नीचे गहरी खोदी हुई खाई और ऊपर विशाल परिखा-पाली से घिरे हुए हैं। अट्टालिका - गढ के ऊपर आश्रय विशेष, चरक-नगर के घरों और किले के बीच में आठ हाथ का चौड़ा रास्ता गलियाँ, किंवाड़, तोरण, प्रतिद्वार - अन्दर का द्वार, जहाँ पर यथास्थान व्यवस्थित हैं। यन्त्र, मूसल, मुसुंढि (भुसुंढ़ि)-शस्त्र विशेष और शतघ्नी तोप आदि शस्त्रों से युक्त हैं। जो अयोध्य हैं यानी उन पर शत्रु हमला नहीं कर सकते हैं। ऐसे ४८ कोठों से युक्त हैं। ४८ वन मालाओं से सुशोभित हैं। जिनका तल लीपा हुआ है और दीवारें घिस कर चिकनी की हुई है। जिनकी दीवारों पर गोशीर्ष चन्दन और लाल चन्दन के लेप से पांचों अङ्गलियों के छापे लगाये गये हैं। कृष्णागुरु, कुन्दुरुष्क, चीड़, तुरुष्क-लोबान आदि सुगन्धित द्रव्यों के जलते हुए धूप से जो मघमघायमान गन्ध से रमणीय और सुगन्धित बने हुए हैं। जो गन्ध की वट्टी के समान हैं। आकाश के समान स्वच्छ, सहा-श्लक्ष्ण यानी सूक्ष्म पुद्गलों से बने हुए, लण्हा -श्लक्ष्ण यानी चिकने, घृष्ट यानी पाषाण प्रतिमा की तरह घिसे हुए, मृष्ट यानी पाषाण प्रतिमा की तरह घिस कर चिकने बनाये हुए, रज रहित, निर्मल, अन्धकार रहित विशुद्ध, प्रभा यानी कान्ति युक्त, मरिचि यानी किरणों युक्त अथवा श्री शोभा सहित उद्योत यानी प्रकाश युक्त, प्रासादीय यानी मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय यानी देखने योग्य, अभिरूप यानी कमनीय और प्रतिरूप यानी प्रत्येक दर्शक के मन को लुभाने वाले हैं। इस तरह गाथाओं द्वारा असुरकुमार, नागकुमार आदि का जो जो परिमाण कहा गया है वह सारा उसी तरह से कह देना चाहिए । विवेचन - पहले यह बताया जा चुका है कि रत्नप्रभा नामक पहली नरक के तेरह प्रस्तट और बारह अन्तर हैं। प्रस्तटों में नैरयिक जीव रहते हैं और बारह अन्तरों में से पहले और दूसरे अन्तर को छोड़ कर तीसरे अन्तर में असुरकुमार जाति के भवनपति देव रहते हैं। भवनपतियों के भवन रत्नों के बने हुए हैं। उन भवनों की सुन्दरता का वर्णन मूल पाठ के अनुसार भावार्थ में कर दिया गया है। वे भवन बाहर गोल हैं और भीतर चौकोण हैं। नीचे कमल की कर्णिका के आकार से स्थित हैं। उनके चारों और खाई और परिखा खुदी हुई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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