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________________ नैरयिकों का वर्णन ३५९ सुजात, सुमनस, सुदर्शन, प्रियदर्शन, आमोह, सुप्रतिबद्ध, यशोधर । अनुत्तरौपपातिक के पांच भेद कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. विजय, २. वैजयन्त ३. जयन्त ४. अपराजित, सर्वार्थसिद्ध । ये अनुत्तरौपपातिक के पांच भेद कहे गये हैं। यह पञ्चेन्द्रियों का कथन हुआ। यह संसार समापन्न जीवों का कथन हुआ। नैरयिक जीवों के दो भेद कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । इस प्रकार वैमानिक तक २४ ही दण्डक के जीवों के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो दो भेद कह देने चाहिए। - अहो भगवन्! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का कितना क्षेत्र अवगाहन कर कितने नरकावास कहे गये हैं? हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का एक लाख अस्सी हजार योजन मोटा पृथ्वीपिण्ड है, उसमें से एक हजार योजन ऊपर छोड़ कर और एक हजार योजन नीचे छोड़ कर बीच में एक लाख ७८ हजार मोटा पृथ्वीपिण्ड. रहता है। इसमें रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के तीस लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नरकावास अन्दर से वर्तुलाकार-गोल और बाहर चतुरंस-चौकोण हैं। यावत् वे नरकावास अशुभ हैं और उन नरकावासों में अशुभ वेदना होती . हैं। इस प्रकार सातों नरकों में उनकी वक्तव्यता कह देनी चाहिए । अब सातों नरकों का मोटापन, नरकावासों की संख्या, परिमाण आदि बातें संग्रहणी गाथाओं के द्वारा बतलाई जाती हैं - पहली नरक का मोटापन १८०००० योजन है। दूसरी का १३२००० योजन है। तीसरी नरक का १२८००० योजन है। चौथी नरक का १२०००० योजन है। पांचवीं नरक का ११८००० योजन है। छठी नरक का ११६००० योजन है। सातवीं नरक का १०८००० योजन है। .. नरकावासों की संख्या - पहली नरक में ३० लाख नरकावास हैं। दूसरी में २५ लाख नरकावास हैं। तीसरी में १५ लाख नरकावास हैं। चौथी में १० लाख है। पांचवीं में ३ लाख हैं। छठी में पांच कम एक लाख हैं और सातवीं नरक में सिर्फ पांच प्रधान नरकावास हैं। भवनपति देवों के भवनों की संख्या - असुरकुमार देवों के ६४ लाख भवन हैं। नागकुमार देवों के ८४ लाख भवन हैं। सुवर्णकुमार देवों के ७२ लाख भवन हैं। दायुकुमार (पवनकुमार) देवों के ९६ लाख भवन हैं। द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और स्तनितकुमार इन छहों युगल देवों के प्रत्येक के ७६ लाख, ७६ लाख भवन हैं। वैमानिक देवों के विमानों की संख्या - सौधर्म देवलोक में ३२ लाख विमान हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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