SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ • समवायांग सूत्र का कहा गया है। यथा - क्रोध कषाय, मान कषाय, माया कषाय, लोभ कषाय । ध्यान - एक वस्तु पर चित्त को एकाग्र रखना ध्यान कहलाता है। वह ध्यान चार प्रकार का कहा गया है। यथा - १. आर्तध्यान - इष्ट वस्तु के संयोग और अनिष्ट वस्तु के वियोग की चिन्ता करना। २. रौद्रध्यान - हिंसा, झूठ आदि में मन को जोड़ना तथा धन, परिवार आदि की रक्षा की चिन्ता करना। ३. धर्मध्यान - वीतराग प्ररूपित तत्त्वों के चिन्तन में मन को एकाग्र रखना। ४. शुक्लध्यान - श्रुत के आधार से मन की अत्यन्त स्थिरता और योगों का निरोध शुक्ल ध्यान कहलाता है। विकथा - संयम में बाधक चारित्र विरुद्ध कथा को विकथा कहते हैं। विकथा चार कही गई है यथा - १. स्त्रीकथा - स्त्री की जाति, कुल, रूप और वेश आदि की कथा करना। २. भक्तकथा - भोजन सम्बन्धी कथा करना। ३. राजकथा - राजा की ऋद्धि आदि की कथा करना। ४. देशकथा - देश सम्बन्धी कथा करना। संज्ञा - असाता वेदनीय और मोहनीयकर्म के उदय से आहार आदि की इच्छा (अभिलाषा) होना संज्ञा कहलाती है। संज्ञा चार कही गई है। यथा - आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा। बन्ध - जिसके द्वारा कर्म और आत्मा क्षीर नीर की तरह एक रूप हो जाते हैं उसे बन्ध कहते हैं। वह बन्ध चार प्रकार का कहा गया है। यथा - १. प्रकृति बन्ध - कर्मपुद्गलों का भिन्न भिन्न स्वभाव। २. स्थिति बन्ध - कर्मपुद्गलं. की जीव के साथ रहने की काल मर्यादा। ३. अनुभाव बन्ध - कर्म पुद्गलों की फल देने की शक्ति का न्यूनाधिक होना। इसे अनुभव बन्ध और अनुभाग बन्ध (रस बन्ध) भी कहते हैं। ४. प्रदेश बन्ध - जीव के साथ कर्मपुद्गलों का न्यूनाधिक परिमाण में सम्बन्ध होना। चार कोस का एक योजन होता है। अनुराधा नक्षत्र, पूर्वाषाढा नक्षत्र, उत्तराषाढा नक्षत्र, ये तीन नक्षत्र. चार-चार तारों वाले कहे गये हैं। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। तीसरी वालुकाप्रभा नामक नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति चार सागरोपम की कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। सनत्कुमार और माहेन्द्र नामक तीसरे और चौथे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति चार सागरोपम की कही गई है। तीसरे और चौथे देवलोक के कृष्टि, सुकृष्टि, कृष्ट्यावर्त्त, कृष्टिप्रभ, कृष्टियुक्त, कृष्टिवर्ण, कृष्टिलेश्य, कृष्टिध्वज, कृष्टिश्रृङ्ग, कृष्टिसृष्ट या कृष्टिसिद्ध, कृष्टिपूर, कष्टपुत्तरावतंसक इन बारह विमानों में जो देव देवरूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की Rhe स्थिति चार सागरोपम की कही गई है। वे देव चार पखवाड़ों से आभ्यन्तर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy