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________________ १६ समवायांग सूत्र चन्द्रावर्त, चन्द्रप्रभ, चन्द्रकान्त, चन्द्रवर्ण, चन्द्रलेश्य, चन्द्रध्वज, चन्द्रश्रृङ्ग, चन्द्रसृष्ट, चन्द्रकूट, चन्द्रोत्तरावतंसक विमान में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की कही गई है। वे देव तीन पक्ष से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को तीन हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव तीन भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मबन्धन से मुक्त होंगे, शीतलीभूत होंगे, सब दुःखों का अन्त करेंगे ।। ३ ॥ विवेचन - यहाँ दण्ड तीन बतलाये गये हैं। दण्ड शब्द की व्याख्या टीकाकार ने इस प्रकार की है - "दण्ड्यते - चारित्रैश्वर्या - पहारतो असारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डाः।" __अर्थात् - जो चारित्र रूपी आध्यात्मिक ऐश्वर्य का अपहरण कर आत्मा को असार कर . देता है वह दण्ड है अथवा प्राणियों को जिससे दुःख पहुँचता है, उसे दण्ड कहते हैं, अथवा मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति को दण्ड कहते हैं। गुप्ति - मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति कहलाता है। अथवा . आने वाले कर्म रूपी कचरे को रोकना गुप्ति है। शुभ योग में प्रवृत्ति करने को भी किसी अपेक्षा गुप्ति कहते हैं। __ शल्य - शस्त्र अथवा कांटे को शल्य कहते हैं। इसके दो भेद हैं। १. द्रव्य और २. भाव। सुई, कांटा, भाला आदि को द्रव्य शल्य कहते हैं। भाव शल्य के तीन भेद हैं यथा - कपट भाव रखना मायाशल्य है, अपने तप संयम की करणी के फलस्वरूप राजा देवता आदि की ऋद्धि की प्राप्ति के अध्यवसाय को निदान (नियाणा) शल्य कहते हैं। कुदेव, कुगुरु और कुधर्म को सुदेव, सुगुरु और सुधर्म मानकर उन पर श्रद्धा करना मिथ्यादर्शन शल्य है। गौरव (गारव) - "गुरोभावः कर्म वा इति गौरवम्" (आच्च गौरवे) अर्थात् - जो भारी हो, उसे गौरव कहते हैं। प्राकृत में "आच्च गौरवे" इस सूत्र से 'औ' के स्थान में 'आ' हो जाता है। इसलिये संस्कृत और हिन्दी में गौरव कहते हैं और प्राकृत में गारव कहते हैं। . इसके द्रव्य और भाव दो भेद हैं। वज्र (हीरा) आदि का भारी होना द्रव्य गौरव है। अभिमान और लोभ से होने वाला आत्मा का अशुभ अध्यवसाय भाव गौरव (भाव गारव) है। यह संसार चक्र में परिभ्रमण कराने वाले कर्मों का कारण है। विराधना - ज्ञान दर्शन और चारित्र आदि का अच्छी तरह से आराधन न करना बल्कि उनका खण्डन करना और उनमें दोष लगाना विराधना है। इसके तीन भेद किये हैं यथा - ज्ञान विराधना, दर्शन विराधना और चारित्र विराधना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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