SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ समवायांग सूत्र हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं सत्त जोयण सहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते॥ ७००० ॥ हरिवासरम्मग वासा अट्ठ जोयण सहस्साइं साइरेगं वित्थरेणं पण्णत्ता ॥ ८००० ॥ दाहिणड्ड भरहस्स णं जीवा पाईण पडीणायया दुहओ समुदं पुट्ठा णवजोयण सहस्साई आयामेणं पण्णत्ता। अजियस्स णं अरहओ साइरेगाई णव ओहिणाण सहस्साई होत्था ॥ ९००० ॥ मंदरे णं पव्वए धरणी तले दस जोयण सहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ते ॥ १०००० ॥ ___ कठिन शब्दार्थ - वित्थरेणं - विस्तृत, दाहिणड्ड भरहस्स - दक्षिणार्द्ध भरत की, पाईण पडीणायया - पूर्व पश्चिम लम्बी, पुट्ठा - स्पर्श करती है। ... भावार्थ - सहस्रार नामक आठवें देवलोक में ६००० विमान कहे गये हैं ॥ ६००० ॥ . इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पहले रत्न काण्ड के ऊपर के चरमान्त से सातवें पुलक काण्ड के नीचे के चरमान्त तक ७००० योजन का अन्तर कहा गया है ॥ ७००० ॥ हरिवर्ष और रम्यकवर्ष क्षेत्र ८००० योजन और एक कला के विस्तृत कहे गये हैं ॥ ८००० ॥ दक्षिणार्द्ध भरत की जीवा पूर्व पश्चिम लम्बी है और दोनों तरफ लवण समुद्र को स्पर्श करती है। वह ९००० योजन लम्बी कही गई है। अजितनाथ भगवान् के संघ में कुछ अधिक नौ हजार अवधिज्ञानी थे अर्थात् ९४०० अवधिज्ञानी थे।। ९००० ॥ समभूमि पर मेरु पर्वत. १०००० योजन चौड़ा ' कहा गया है ॥ १०,००० ॥ विवेचन - यहाँ पर दक्षिणार्द्ध भरत की जीवा ९००० योजन लम्बी बतलाई गई है। किन्तु दूसरी जगह ९७४८ योजन १२ कला बतलाई गई है। सो यह मतान्तर मालूम होता है। जंबूहीवे णं दीवे एगं जोयण सयसहस्सं आयाम विक्खंभेणं पण्णत्ते ॥ १०००००॥ लवणे णं समुद्दे दो जोयण सयसहस्साइं चक्कवाल विक्खंभेणं पण्णत्ते ॥ २०००००॥ पासस्स णं अरहओ तिण्णि सयसाहस्सीओ सत्तावीसं च सहस्साइं उक्कोसिया साविया संपया होत्था ॥ ३००००० ॥धायईखंडे णं दीवे चत्तारि जोयण सयसहस्साई चक्कवाल विक्खंभे णं पण्णत्ते॥ ४००००० ॥ लवणस्स णं समुदस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ पच्चथिमिल्ले चरमंते एस णं पंच जोयण सयसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ॥५००००० ॥ कठिन शब्दार्थ - चक्कवाल विक्खंभेणं - चक्रवाल विष्कंभ (विस्तार-चारों तरफ घिरा हुआ)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy