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________________ समवाय३ १३ पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास निःस्वास मथान्यदायुः । प्राणा:दशैते भगवद्भिरुक्ताः, तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ जिन से प्राणी जीवित रहे, उन्हें प्राण कहते हैं। वे दस हैं - १. स्पर्शनेन्द्रिय बल प्राण २. रसनेन्द्रिय बल प्राण ३. घ्राणेन्द्रिय बल प्राण ४. चक्षुरिन्द्रिय बल प्राण ५. श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण ६. काय बल प्राण ७. वचन बल प्राण ८. मन बल प्राण ९. श्वासोच्छ्वास बल प्राण १०. आयुष्य बल प्राण। ___भाव प्राण चार हैं यथा - अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त शक्ति (अनन्त आत्मिक सामर्थ्य) और अनन्त सुख (अव्याबाध सुख) । सिद्ध भगवन्तों में ये चार भाव प्राण होते हैं। कोई कोई "अनन्त वीर्य" कहते हैं। किन्तु यह कथन आगमानुकूल नहीं है। क्योंकि भगवती सूत्र शतक १ उद्देशक ८ में सिद्ध भगवन्तों में "वीर्य" का निषेध किया है। वीर्य का अर्थ है - किसी भी कार्य को सम्पन्न करने की शक्ति (पुरुषार्थ) । किन्तु सिद्ध भगवान् को कोई भी कार्य करना बाकी नहीं रहा है। वे निष्ठितार्थ (कृतकार्य-कृतकृत्य) हो चुके हैं। इसीलिये उनमें वीर्य नहीं होता है। 'बन्धन'- जिसके द्वारा कर्म और आत्मा क्षीर, नीर दूध और पानी की तरह एक रूप हो जाते हैं उसे बन्धन कहते हैं। बन्धन के दो भेद हैं १. राग बन्धन और २. द्वेष बन्धन। जिससे जीव मनोज्ञ वस्तु को देखकर आसक्त (अनुरक्त) हो जाय, उसे 'राग बन्धन' कहते हैं। अमनोज्ञ वस्तु को देखकर उस पर द्वेष करने से होने वाला बन्ध 'द्वेष बन्धन' कहलाता है। ... असुरकुमार जाति के दो इन्द्र हैं - चमर और बलि। इनको छोड़कर उत्तर दिशा के नवनिकाय के देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो पल्योपम से कुछ कम है। तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय और गर्भज मनुष्य की जो दो पल्योपम की स्थिति बतलाई है वह हरिवर्ष और रम्यकवर्ष क्षेत्रों में उत्पन्न युगलिक की अपेक्षा समझनी चाहिए। तीसरा समवाय तओ दंडा पण्णत्ता तंजहा - मण दंडे, वय दंडे, काय दंडे। तओ गुत्तीओ पण्णत्ताओ तंजहा-मणगुत्ती, वयगुत्ती, कायगुत्ती। तओ सल्ला पण्णत्ता तंजहामायासल्ले णं णियाणसल्ले णं मिच्छादसणसल्ले णं, तओ गारवा पण्णत्ता तंजहाइड्डि गारवेणं रस गारवेणं साया गारवेणं । तओ विराहणा पण्णत्ता तंजहा - णाण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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