SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ समवायांग सूत्र 'इस प्रकार सब जीवों की योनियों के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिये। . जैन सिद्धान्त के अनुसार १ से लेकर १०० तक (शत) १००० (सहस्र), १०००००. (शत सहस्र) आदि से लेकर शीर्ष प्रहेलिका तक जो संख्या स्थान होते हैं, उनमें जहाँ से प्रथम बार ८४ लाख से गुणाकार प्रारम्भ होता है उसे स्वस्थान कहते हैं और उससे आगे के स्थान को स्थानान्तर कहते हैं। जैसे कि - ८४ लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग होता है। यह स्वस्थान है और इसको ८४००००० से गुणा करने पर जो "पूर्व" नामका दूसरा स्थान होता . है वह स्थानान्तर है। इसी प्रकार आगे पूर्व की संख्या को ८४००००० से गुणा करने पर 'त्रुटितांग' नाम का जो स्थान बनता है वह स्वस्थान है और उसे ८४००००० से गुणा करने पर 'त्रुटित' नामक का जो स्थान आता है वह स्थानान्तर है। इस प्रकार पूर्व के स्थान से लेकर शीर्ष प्रहेलिका तक १४ स्वस्थान है और १४ ही स्थानान्तर हैं। जो कि ८४-८४ लाख के गुणाकार वाले. जानना चाहिये। शीर्ष प्रहेलिका तक १९४ अङ्कों की संख्या आती है। वह इस प्रकार हैं - .. ७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६ इन ५४ अङ्कों पर १४० बिन्दियां लगाने से शीर्ष प्रहेलिका संख्या का प्रमाण आता है। यहाँ तक गणित का विषय माना गया है। इसके आगे भी संख्या का परिमाण बतलाया गया है। परन्तु वह गणित का विषय नहीं है किन्तु उपमा का विषय है।' ... पूर्वाङ्ग - चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग होता है। पूर्व - पूर्वाङ्ग को ८४००००० से गुणा करने से एक पूर्व होता है। - त्रुटितांग - पूर्व को चौरासी लाख से गुणा करने से एक त्रुटितांग होता है। त्रुटित - त्रुटितांग को चौरासी लाख से गुणा करने से एक त्रुटित होता है। इस प्रकार पहले की राशि को ८४ लाख से गुणा करने से उत्तरोत्तर राशियाँ बनती हैं वे इस प्रकार हैं - २३. अटटांग २४. अटट २५. अववांग २६. अवव २७. हुहुकांग २८. हुहुक २९. उत्पलांग ३०. उत्पल ३१. पद्मांग ३२. पद्म ३३. नलिनांग ३४. नलिन २५. अर्थ निपूरांग ३६. अर्थ निपूर ३७. अयुतांग ३८. अयुत ३९. नयुतांग ४०. नयुत ४१. प्रयुतांग ४२. प्रयुत ४३. चूलिकांग ४४. चूलिका ४५. शीर्ष प्रहेलिकांग ४६. शीर्ष प्रहेलिका । . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy