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________________ २०६ समवायांग सूत्र पचपनवां समवाय मल्लि णं अरहा पणवण्णं वाससहस्साई परमाउं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चथिमिल्लाओ चरमंताओ विजयदारस्स पच्चथिमिल्ले चरमंते एस णं पणवण्णं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । एवं चउदिसिं वि वेजयंत जयंत अपराजियं त्ति। समणे भगवं महावीरे अंतिमराइयंसि. पणवण्णं अज्झयणाई कल्लाणफल विवागाइं पणवण्णं अज्झयणाई पावफलविवागाई वागरित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। पढम बिइयासु दोसु पुढवीसु पणवण्णं णिरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता। दंसणावरणिज णामाउयाणं तिण्णं कम्म पयडीणं पणवण्णं उत्तरकम्मपयडीओ पण्णत्ताओ ॥ ५५ ॥ कठिन शब्दार्थ - पणवण्णं वाससहस्साई - पचपन हजार वर्ष का, परमाउं - पूर्ण आयु, अंतिमराइयंसि - अंतिम रात्रि में, वागरित्ता - फरमा कर। भावार्थ - उन्नीसवें तीर्थङ्कर श्री मल्लिनाथ स्वामी पचपन हजार वर्ष का पूर्ण आयु भोग कर सिद्ध बुद्ध यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए । मेरु पर्वत के पश्चिम के चरमान्त से विजय द्वार का पश्चिम चरमान्त तक पचपन हजार योजन का अन्तर कहा गया है। क्योंकि मेरु पर्वत से विजयद्वार ४५ हजार योजन है और मेरु पर्वत दस हजार योजन का चौड़ा है, इस प्रकार सब मिला कर ५५ हजार योजन होते हैं। इसी तरह चारों दिशाओं में अर्थात् दक्षिण में वैजयन्त पश्चिम में जयन्त और उत्तर में अपराजित द्वारों का अन्तर समझ लेना चाहिए। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अन्तिम रात्रि में अर्थात् कार्तिक कृष्णा अमावस्या को कल्याणफल विपाक अर्थात् पुण्य के फल बतलाने वाले पचपन अध्ययन और पापफलविपाक यानी पाप के फल बतलाने वाले पचपन अध्ययन फरमा कर सिद्ध बुद्ध यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए। पहली नरक में तीस लाख नरकावास हैं और दूसरी नरक में पचीस लाख नरकावास हैं, इस प्रकार दोनों नरकों में पचपन लाख नरकावास कहे गये हैं। दर्शनावरणीय कर्म की ९ प्रकृतियाँ हैं, नाम कर्म की ४२ और आयु कर्म की ४ हैं, इस प्रकार इन तीन कर्मों की कुल मिलाकर पचपन उत्तर कर्म प्रकृतियाँ कही गई हैं ॥ ५५ ॥ - विवेचन - यहाँ पर जम्बूद्वीप के विजय-द्वार का पश्चिमान्त लिखा है किन्तु जगती का पूर्वान्त समझना चाहिये। जम्बूद्वीप की जगती ८ योजन की ऊंची है। मूल में बारह योजन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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