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________________ समवाय ४२ १९१ होते हुए भी या सम्बन्धी होते हुए भी जीव लोगों को अप्रिय लगता है वह दुर्भग नामकर्म है। ३४. सुस्वर नाम - जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर मधुर और प्रीतिकारी हो वह सुस्वर नाम कर्म है। ३५. दुःस्वर नाम - जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्कश हो अर्थात् सुनने में अप्रिय लगे वह दुःस्वर नाम कर्म है। ३६. आदेय नाम - जिस कर्म के उदय से जीव का वचन सर्वमान्य हो । ३७. अनादेय नाम - जिस कर्म के उदय से जीव का वचन युक्तियुक्त होते हुए भी ग्राह्य नहीं होता वह अनादेय नाम कर्म है। ३८. यश:कीर्ति नाम - जिस कर्म के उदय से संसार में यश और कीर्ति का प्रसार हो वह यश:कीर्ति नाम कहलाता है। ४०. अयश:कीर्ति नाम - जिस कर्म के उदय से संसार में अपयश और अपकीर्ति हो वह अयशःकीर्ति नाम है। ४१. निर्माण नाम - जिस कर्म के उदय से जीव के अङ्ग उपाङ्ग यथास्थान व्यवस्थित होते हैं उसे निर्माण नाम कर्म कहते हैं। यह कर्म कारीगर के समान है, जैसे कारीगर मूर्ति में हाथ पैर आदि अवयवों को उचित स्थान पर बना देता है, उसी प्रकार यह कर्म भी शरीर के अवयवों को अपने अपने नियत स्थान पर व्यवस्थित करता है। ४२. तीर्थङ्कर नाम - जिस कर्म के उदय से जीव तीर्थङ्कर पद पाता है उसे तीर्थंकर नाम कर्म कहते हैं। लवण समुद्र में बयालीस हजार नाग देवता आभ्यन्तर वेल को यानी जम्बूद्वीप की तरफ आने वाली पानी की धारा को रोक रखते हैं। महालिका विमान प्रविभक्ति नामक कालिक सूत्र के दूसरे वर्ग में बयालीस उद्देशन काल कहे गये हैं। प्रत्येक अवसर्पिणी के पांचवां और छठा दोनों आरे मिला कर बयालीस हजार वर्ष के कहे गये हैं। प्रत्येक उत्सर्पिणी के पहला और दूसरा दोनों आरे मिला कर बयालीस हजार वर्ष के कहे गये हैं ॥ ४२ ॥ विवेचन - चौबीसवें तीर्थङ्कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी तीस वर्ष गृहस्थावस्था में रह कर फिर दीक्षित हुए । १२ वर्ष ६॥ महीने छद्मस्थ रहे । तीस वर्ष केवली पर्याय का पालन कर मोक्ष पधारे। चैत्र सुदी १३ को भगवान् का जन्म हुआ और कार्तिक वदी अमावस्या को मोक्ष पधारे। इस प्रकार चैत्र सुदी तेरस से लेकर कार्तिक वदी अमावस्या तक छह महीने से कुछ अधिक समय होता है। इस हिसाब से भगवान् की दीक्षापर्याय ४२ वर्ष से कुछ अधिक होती है। इसीलिये यहाँ मूल पाठ में लिखा है कि - 'बायालीसं वासाइं साहियाई सामण्णपरियागं' अर्थात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने ४२ वर्ष से कुछ अधिक श्रमणपर्याय का पालन किया था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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