SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० समवायांग सूत्र का परस्पर मिलना और उनके तात्त्विक प्रश्नोत्तर। २४. पांच समिति तीन गुप्ति रूप आठ प्रवचन माता का वर्णन २५. यज्ञीय - जयघोष और विजयघोष का वर्णन। २६. समाचारी - साधु समाचारी का वर्णन २७. खलुङ्कीय-गर्गाचार्य और उनके अविनीत शिष्यों का वर्णन। २८. मोक्ष मार्ग गति २९. अप्रमाद - सम्यक्त्व पराक्रम-तहतर बोलों की पृच्छा ३०. तपो मार्ग - तप के भेदों का वर्णन ३१. चरण विधि - एक से लेकर तेतीस तक की वस्तुओं का वर्णन ३२. प्रमाद स्थान - प्रमाद स्थानों का तथा उनसे छूटने के उपायों का वर्णन। ३३. कर्म प्रकृति - आठ कर्म और उनकी प्रकृतियों का वर्णन ३४. लेश्या अध्ययन - छह लेश्याओं का वर्णन ३५. अनगार मार्ग - साधु के मार्ग का वर्णन । ३६. जीवाजीव विभक्ति-जीव अजीव के भेदों का वर्णन। असुरों के राजा असुरों के इन्द्र चमरेन्द्र की सुधर्मा सभा छत्तीस योजन ऊंची है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के छत्तीस हजार आर्याएं थी। चैत्र मास और आश्विन मास में छत्तीस अंगुल प्रमाण पोरिसी की छाया होती है अर्थात् घुटने प्रमाण तृण को खड़ा करके देखें, जब छत्तीस अंगुल छाया पड़े तब पोरिसी आई हुई समझनी चाहिए।। ३६ ॥ विवेचन - उत्तराध्ययन सूत्र के ३६ अध्ययन कहे गये हैं। 'उत्तर' शब्द के अनेक अर्थ बतलाये गये हैं। यथा - उत्तर दिशा, ऊंचा, श्रेष्ठ, प्रधान, प्रश्न का उत्तर, पिछला, बांया, शक्तिशाली आदि अनेक अर्थ हैं। परन्तु यहाँ सिर्फ दो अर्थ लिये गये हैं,- प्रधान और पिछला (बाद)। इस सूत्र में विनयश्रुत आदि छत्तीस अध्ययन हैं। इन में आगे से आगे प्रधान (उत्तर). अध्ययन कहे गये हैं। इसलिये यह सूत्र उत्तराध्ययन कहलाता है। अथवा सब से पहले शिष्य को आचाराङ्ग सूत्र पढ़ाया जाता है। उसमें साधु के आचार गोचर का वर्णन है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पांचवें पाट पर १४ पूर्वधारी आचार्य शय्यम्भव हुए हैं उन्होंने अपने पुत्र मनखमुनि का आयुष्य अल्प जान कर १४ पूर्वो में से दशवैकालिक सूत्र के दस अध्ययनों का निर्वृहण (उद्धरण) किया। 'आत्मप्रवाद' नामक सातवें पूर्व में से चौथे अध्ययन का तथा 'कर्म प्रवाद' नामक आठवें पूर्व में से ५ वाँ अध्ययन एवं 'सत्यप्रवाद' नामक छठे पूर्व में से सातवाँ अध्ययन और शेष सात अध्ययन नववें 'प्रत्याख्यान' पूर्व की तीसरी आचार वस्तु से नि!हण किया गया। तब से आचारांग सूत्र के बदले दशवैकालिक सूत्र पढाया जाने लगा । इसलिये उत्तर में अर्थात् बाद में पढाया जाने वाला होने से यह सूत्र उत्तराध्ययन कहलाता है। इसकी संक्षिप्त किन्तु कुछ विस्तार वाली विषय सूची श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह बीकानेर के प्रथम भाग के बोल नं. २०४ में दी गई है। - उनतीसवें अध्ययन का मुख्य नाम 'अप्रमाद' दिया है जिसका दूसरा नाम 'सम्यक्त्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy