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________________ समवाय ३५ १७५ दिगम्बर परम्परा में भी प्राय: ये ही अतिशय कुछ पाठ भेद से मिलते हैं। वहाँ जन्मजात १० अतिशय, घातिकर्मों के क्षय से १० अतिशय और देवकृत १४ अतिशय कहे गये हैं। ... पहली, पांचवी, छठी और सातवीं इन चार पृथ्वियों में ३४००००० (३०+३+पांच कम एक लाख और ५) नरकावास कहे गये हैं। पैंतीसवां समवाय पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता। कुंथू णं अरहा पणतीसं धणूई उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था। दत्ते णं वासुदेवे पणतीसं धणूई उड्डूं उच्चत्तेणं होत्था। णंदणे णं बलदेवे पणतीसं धणूई उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था। सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे हेट्ठा उवरि च अद्धतेरस अद्धतेरस जोयणाणि वजित्ता मज्झे पणतीस जोयणेसु वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु जिण सकहाओ पण्णत्ताओ। बितियचउत्थीसु दोसु पुढवीसु पणतीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ॥ ३५ ॥ कठिन शब्दार्थ - सच्चवयणाइसेसा - सत्य वचन के अतिशय, उड्डे उच्चत्तेणं - ऊंचाई, वइरामएसु - वज्रमय, गोलवट्टसमुग्गएसु - गोल वर्तुलाकार समुद्गक (पेटी), जिण सकहाओ - तीर्थकर भगवान् की अस्थियाँ । - भावार्थ - तीर्थकर भगवान् की वाणी सत्य वचन के अतिशयों से सम्पन्न होती है। सत्यवचन के पैंतीस अतिशय कहे गये हैं। १. संस्कारवत्त्व - संस्कार युक्त होना अर्थात् भाषा और व्याकरण की दृष्टि से निर्दोष होना। २. उदात्तत्त्व - ऊंचे स्वर से बोला जाना। ३. उपचारोपेतत्त्व - शिष्टाचार युक्त एवं ग्राम्य दोष से रहित होना। ४. गम्भीर शब्दता - आवाज में मेघ की तरह गम्भीरता होना। ५ . अनुनादित्त्व - आवाज का प्रतिध्वनि सहित होना। ६. दक्षिणत्व - भाषा में सरलता होना। ७. उपनीत रागत्व - माल कोश आदि ग्राम राग से युक्त होना अथवा वाणी में ऐसी विशेषता होना कि श्रोताओं में उसके प्रति बहुमान के भाव उत्पन्न हो। ८. महार्थत्व-महान् अर्थ से युक्त होना अर्थात् थोड़े शब्दों में अधिक अर्थ कहना। ९. अव्याहतपौर्वापर्यत्व- वचनों में पूर्वापर विरोध नहीं होना। १०. शिष्टत्व - अभिमत सिद्धान्त का कथन करना अथवा बोलने वाले की शिष्टता सूचित हो ऐसे वचन कहना। ११. असन्दिग्धत्व - स्पष्टता पूर्वक बोलना जिससे कि श्रोताओं के दिल में सन्देह न हो । १२. अपहृतान्योत्तरत्व - वचन ऐसा स्पष्ट और निर्दोष हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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