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________________ १५४ समवायांग सूत्र जीव अनादि काल से आठ कर्मों से बन्धा हुआ है। जीव में पांच प्रकार की शक्ति है - उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरस्कार (पुरुषार्थ) पराक्रम। इन पांचों शक्तियों के समवेत पुरुषार्थ से जीव आठों कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो सकता है जैसा कि कहा है - सिद्धां जैसो जीव है, जीव सोही सिद्ध होय। कर्म मैल का आंतरो, बूझे विरला कोय ॥ सिद्ध और संसारी में, कर्म ही का भेद है । काट दे अगर कर्म को, तो न भेद है न खेद है ॥ पुरुषार्थ के दो भेद हैं - सत् पुरुषार्थ और असत् पुरुषार्थ। सत् पुरुषार्थ से जीव की सद्गति होती है और असत् पुरुषार्थ से जीव की दुर्गति होती है। जैसा कि कहा है - यात्य धोऽधो व्रजत्युचैः, नरः स्वैरेव कर्मभिः। . . कूपस्य खनिता यद्वद, प्राकारास्येव कारकः॥ यही बात हिन्दी दोहे में भी कही गई है - करता उन्नति स्वयं ही, सत्पुरुषार्थ परिमाण। जो नर चिणता कोट (भीत) को, वह चढ़ता आसमान ॥ असत् पुरुषार्थ जो करे, बनता वह कङ्गाल। जो नर खोदे कूप को, नीचे जाय पाताल॥ अर्थ- कोट (भीत) आदि को चिनने वाला पुरुष ज्यों ज्यों चिनता जाता है त्यों त्यों ऊपर चढ़ता जाता है और कुआं खोदने वाला पुरुष ज्यों ज्यों खोदता है त्यों त्यों नीचे जाता है। दोनों पुरुषार्थ तो करते हैं परन्तु एक का सत्पुरुषार्थ है और दूसरे का असत् पुरुषार्थ । यह दृष्टान्त देकर ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि जीव को सत् पुरुषार्थ करना चाहिये जिससे वह क्रमशः उन्नति करता हुआ सद्गति और सिद्धिगति को प्राप्त कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाय। कर्म की ज्ञानावरणीयादि आठ मूल प्रकृतियाँ हैं। इन आठों कर्मों का क्षय करने से जीव में आठ गुण प्रकट होते हैं। यथा - केवलज्ञान, केवलदर्शन, अव्याबाध सुख क्षायिक सम्यक्त्व, अक्षयस्थिति, अरूपीपन, अगुरुलघुत्व और अनन्त आत्मिक शक्ति। कवि विनयचन्द जी ने नववें भगवान् की प्रार्थना करते हुए इन आठ गुणों का वर्णन इस प्रकार किया है - अष्टकर्म नो राजवी हो, मोह प्रथम क्षय कीन । शुद्ध समकित चारित्रनो हो, परम क्षायिक गुण लीन ॥ श्री ॥ ३ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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