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________________ १५० समवायांग सूत्र MAHARASHMIRMANOMANIMANIROMITRAMuswamsanerdNetweenasamwadenotationwines नहीं बिगाड़ सकता, हमें कोई नष्ट नहीं कर सकता परन्तु ज्यों ही मिथ्यात्व रूपी राजा की जड़ हिली अर्थात् मिथ्यात्व का क्षय हुआ त्यों ही सतरह ही पाप भयभीत हो जाते हैं डर जाते हैं कि - अब हम लम्बे समय तक स्थिर नहीं रह सकते, अब हमारा भी क्षय निकट भविष्य में अवश्यंभावी है। अतः ज्ञानी फरमाते हैं कि इन मोहनीय बन्ध के कारणों का किसी भी व्यक्ति को सेवन नहीं करना चाहिये । महामोहनीय के तीस स्थानों में से ११ वें स्थान में ये शब्द आये हैं कि - 'अकुमारभूए. जे केइ, कुमारभूएत्तिहं वए'... शब्द कोश में 'कुमार' शब्द के कई अर्थ किये हैं - यथा प्रथम उम्र वाला व्यक्ति, कार्तिकेय, शुक (तोता) पक्षी, घुडसवार, वरुण, वृक्ष, सिंधुनद, शुद्ध सोना, बालक, अविवाहित, युवराज (जिसका पिता राजा मौजूद है और वह स्वयं राजा नहीं बना है), बाल ब्रह्मचारी आदि आदि अनेक अर्थ दिये गये हैं - जैसा कि ठाणाङ्ग सूत्र के पांचवें ठाणे के तीसरे उद्देशक में कहा है - 'पंच तित्थयरा कुमारवासमझे वसित्ता मुंडा जाव पव्वइया तंजहा - वासुपुजे मल्ली अरिडणेमी पासे वीरे ।' __ अर्थ - वासुपूज्य स्वामी, मल्लिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ एवं महावीर स्वामी इन पांच तीर्थङ्करों ने कुमार अवस्था में दीक्षा ली थी। यहाँ 'कुमार' शब्द का अर्थ है राजा बने बिना अर्थात् राज्य भोग किये बिना। यही बात समवायाङ्ग सूत्र के १९ वें समवाय में भी कही है। वहाँ लिखा है कि - १९ तीर्थङ्करों ने राज्य भोग कर दीक्षा ली थी शेष पांच के लिये लिखा है - शेषास्तु पञ्च कुमारभावे एवेत्याह च - "वीरं अरिट्टनेमिं पासं, मल्लि च वासुपुजं च । एए मोत्तूण जिणे अवसेसा आसी रायाणो ॥१॥" . यहाँ दोनों जगह पर कुमार शब्द का अर्थ करना चाहिये - राज्य भोग किये बिना अर्थात् राजा बने बिना। . नव मोटी पदवियां गिनी गई हैं यथा - १. सम्यग्दृष्टि २. श्रावक ३. मांडलिकराजा ४. बलदेव ५. वासुदेव ६. चक्रवर्ती ७. साधु ८. केवली और ९. तीर्थङ्कर। इनमें से शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ इन तीन को इस भव में ६ पदवियाँ प्राप्त हुई थी (सम्यग्दृष्टि, मांडलिक राजा, चक्रवर्ती, साधु, केवली, तीर्थङ्कर)। उपरोक्त वासुपूज्य आदि पांच को सिर्फ चार पदवियाँ प्राप्त हुई थी (सम्यग्दृष्टि, साधु, केवली, तीर्थङ्कर) शेष सोलह तीर्थंकरों को पांच पदवियाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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