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________________ १२८ समवायांग सूत्र सत्ताईस पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की कही गई है। मध्यम उपरितन नामक छठे ग्रैवेयक में देवों की जघन्य स्थिति सत्ताईस सागरोपम की कही गई है। जो देव मध्यम मध्यम नामक पांचवें ग्रैवेयक में देव रूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सत्ताईस सागरोपम की कही गई है। वे देव सत्ताईस पखवाड़ो से आभ्यन्तर श्वासाच्छवास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को सत्ताईस हजार वर्षों से आहार की इच्छा पैदा होती है। कितनेक भवसिद्धिक - भवी जीव ऐसे हैं जो सत्ताईस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ २७ ॥ विवेचन - उत्तराध्ययन सूत्र के ३१ वें अध्ययन में तथा आवश्यक सूत्र के प्रतिक्रमण अध्ययन में भी साधु के २७ गुणों का वर्णन किया गया है। . __ मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियाँ हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्ति के एक समय पूर्व क्षायोपशमिक वेदक सम्यक्त्व कहलाती है। उस प्रकृति से जो निवृत्त हो चुका है ऐसे जीव के मोहनीय कर्म की सत्ताईस कर्म प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। क्योंकि वह जीव क्षायोपशमिक समकित के हेतु भूत शुद्ध दलिक रूप दर्शन मोहनीय की प्रकृति से उपरत हो चुका है। उपरत शब्द का पर्यायवाची शब्द उद्वलक अथवा वियोजक है। - श्रावण शुक्ला सप्तमी का अर्थ इस प्रकार समझना चाहिए कि कर्क संक्राति से लेकर २१ वें दिन २७ अङ्गल की पोरिसी छाया होती है। ... इस सूत्र में तथा आगे कई सूत्रों में पोरिसी की छाया के परिमाण का कथन किया गया है। अतः यहाँ पर थोड़ासा खुलासा कर दिया जाता है। बारह अङ्गुल का एक पैर अथवा एक बैंत होता है। दो बैंत अर्थात् चौबीस अङ्गल का एक हाथ लेता है। दिन या रात्रि के चौथे भाग को एक प्रहर - पोरिसी कहते हैं। शीतकाल में दिन छोटे होते हैं और रात्रि बड़ी होती है। जब रात्रि लगभग पौने चौदह घण्टे की होती है तो दिन सवा दस घन्टे का रह जाता है। उष्णकाल (गर्मी) में दिन बड़े होते हैं और रातें छोटी। जब दिन लगभग पौने चौदह घण्टे का होता है तो रात सवा दस घण्टे की रह जाती है। तदनुसार शीतकाल में रात्रि की पोरिसी बड़ी होती है और दिन की छोटी । उष्ण काल में दिन की पोरिसी बड़ी होती है और रात की पोरिसी छोटी हो जाती है। पोरिसी का परिमाण चौबीस अङ्गल का तिनका या लकड़ी लेकर अथवा घुटने तक की छाया से जाना जाता है। पौष मास की पूर्णिमा को जब कि दिन सब से छोटा होता है तब उस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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