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________________ १२२ समवायांग सूत्र नाम इस प्रकार हैं - १. तिर्यञ्च गति नाम २. विकलेन्द्रिय जाति नाम ३. औदारिक शरीर नाम ४. तैजस शरीर नाम ५. कार्मण शरीर नाम ६. हुण्डक संस्थान नाम ७. औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग नाम ८. छेवट्ट सेवार्त-संहनन नाम ९. वर्ण नाम १०. गन्ध नाम ११. रस नाम १२. स्पर्श नाम १३. तिर्यञ्चानुपूर्वी नाम १४. अगुरुलघु नाम १५. उपघात नाम १६. त्रस नाम १७. बादर नाम १८. अपर्याप्तक नाम १९. प्रत्येक शरीर नाम २०. अस्थिर नाम २१. अशुभ नाम २२. दुर्भग नाम २३. अनादेय नाम २४. अयश:कीर्ति नाम २५. निर्माण नाम। गङ्गा और सिन्धू ये दो महानदियाँ पच्चीस गाऊ-कोस के चौड़े प्रवाह से पद्म द्रह से निकल कर हिमवंत पर्वत पर . दक्षिण दिशा में पांच सौ योजन जाकर घड़े के मुख के आकार मुक्तावली हार के संस्थान वाले प्रपात से गङ्गा और सिन्धू प्रपात कुण्ड में गिरती हैं। इसी तरह रक्ता और रक्तवंती महानदियाँ पच्चीस गाऊ-कोस के चौड़े प्रवाह से पुण्डरीक द्रह में से निकल कर शिखरी पर्वत पर पांच सौ योजन दक्षिण दिशा में जाकर मकर के मुखाकार वाले मुक्तावली हार के संस्थान वाले प्रपात से रक्ता और रक्तवती प्रपात कुण्ड में गिरती हैं। चौदहवें लोक बिन्दुसार पूर्व की पच्चीस वस्तु-अध्ययन कहे गये हैं। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति पच्चीस पल्योपम की कही गई है। महातमप्रभा (तमस्तमाः प्रभा) नामक सातवीं नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति पच्चीस सागरोपम की कही गई है। असुरकुमार देवों में कितनेक देवों की स्थिति पच्चीस पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति पच्चीस पल्योपम की कही गई है। मध्यम अधस्तन अर्थात् चौथे ग्रैवेयक वाले देवों की जघन्य स्थिति पच्चीस सागरोपम की कही गई है। जो देव अधस्तन उपरितन अर्थात् तीसरे ग्रैवेयक विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति पच्चीस सागरोपम की कही गई है। वे देव पच्चीस पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को पच्चीस हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो पच्चीस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ।। २५॥ विवेचन - मनः एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः। बन्धाय विषयासक्तं, मुक्त्यै निर्विषयं मनः॥ यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी॥ आदि उक्तियों से यह जाना जा सकता है कि मानसिक क्रियाओं का हमारे जीवन पर कितना अधिक असर होता है। हमारे अच्छे और बुरे विचार हमें अच्छा और बुरा बना देते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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