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________________ ११० समवायांग,सूत्र सूक्ष्म सम्परायच्छास्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥ १० ॥ एकादश जिने ॥ ११ ॥ बादर सम्पराये सर्वे ॥ १२ ॥ ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥ १३ ॥ दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥ १४ ॥ चारित्र मोहे नाग्न्यारतिस्त्री निषद्याक्रोश याचनासत्कार पुरस्काराः ।। १५ ॥ वेदनीये शेषाः ॥ १६ ॥ एकादयो भाज्या युगपदैकोनविंशतेः ।। १७ ॥ अर्थ - साधु मार्ग से च्युत न होने अर्थात् साधु समाचारी में स्थिर रहने के लिये और कर्मबन्धन के विनाश के लिये जो समभाव पूर्वक सहन करने के योग्य हैं, उन्हें परीषह कहते हैं। चार कर्मों के उदय से ये सारे परीषह होते हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से बीसवां (प्रज्ञा परीषह) और इक्कीस वाँ 'अज्ञान परीषह' ये दो परीषह होते हैं। वेदनीय कर्म के उदय से क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंश- मशक (१ से ५ तक) चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और जल्लमैल ( ९, ११, १३, १६, १७, १८) ये ग्यारह परीषह होते हैं। दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से २२ वाँ दर्शन परीषह होता है और चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से अचेल, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार - पुरस्कार (६, ७, ८, १०, १२, १४ और १९) ये सात परीषह होते हैं । अर्थात् ये आठ परीषह मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं । अन्तराय कर्म के उदय से पन्द्रहवाँ अलाभ परीषह होता है । ये सब परीषह साधु साध्वी के होते हैं। जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्ययन में कहा है। इसलिये छठे गुणस्थान से लेकर नवमें गुणस्थान तक सभी परीषह होते हैं। दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले आठ परीषहों को छोड़ कर बाकी १४ परीषह होते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में वेदनीय कर्म के उदय से होने वाले क्षुधा, पिपासा आदि ग्यारह परीषह होते हैं। - दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है कि केवली कवलाहार नहीं करते अर्थात् केवली को भूख प्यास नहीं लगती है किन्तु यह मान्यता आगमांनुकूल नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा केवली के कवलाहार मानती है। इसलिये दिगम्बर और श्वेताम्बर में तीन बातों का मुख्य रूप से फर्क है यथा - Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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