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________________ समवाय १७ ८३ गति, पवत्तइ - होती है, उप्पायपव्वए - उत्पात पर्वत, तिगिछिकूडे - तिगिछि कूट, आवीईमरणे - आवीचि मरण, आयंतियमरणे - आत्यंतिक मरण, वलयमरणे - वलन्मरण, वसट्ट - वशार्त, अंतोसल्ल - अन्तःशल्य, वेहाणस - वैहानस (वैहायस), गिद्धपिट्ठ - गृद्धपृष्ठ, पाओवगमण - पादपोपगमन ।। भावार्थ - सतरह प्रकार का असंयम कहा गया है। यथा - १. पृथ्वीकाय का असंयम २. अप्काय असंयम ३. तेउकाय असंयम ४. वायुकाय असंयम ५. वनस्पतिकाय असंयम ६. बेइन्द्रिय असंयम ७. तेइन्द्रिय असंयम ८. चौइन्द्रिय असंयम ९. पञ्चेन्द्रिय असंयम इन जीवों की यतना न करने से असंयम होता है। १०. अजीवकाय असंयम यानी बहुमूल्य वस्त्र आदि ग्रहण करना एवं साधु के लिये अकल्पनीय और अनैषणिय वस्तु को ग्रहण करना अजीवकाय असंयम कहलाता है। ११. प्रेक्षा असंयम - उपकरण आदि की पडिलेहणा न करना या अविधि से करना। १२. उपेक्षा असंयम - अशुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना और शुभ कार्यों में प्रवृत्ति न करना। १३. अपहृत्य असंयम - लघुनीत बड़ीनीत आदि को विधि से न परठना। १४. अप्रमार्जना असंयम - उपकरणों की प्रमार्जना न करना अथवा अविधि से करना। १५., मन असंयम - मन से बुरे विचार करना। १६. वचन असंयम - दुष्ट वचन । बोलना। १७. काय असंयम - शरीर से अशुभ प्रवृत्ति करना। सतरह प्रकार का संयम कहा गया है। यथा - १-१७ पृथ्वीकाय संयम यावत् काय संयम । पृथ्वी आदि की यतना करना यावत् मन वचन काया की शुभ प्रवृत्ति करना। मानुष्योत्तर पर्वत १७२१ योजन ऊँचा कहा गया है। सब बेलन्धर और अनुबेलन्धर नागराजाओं के आवासपर्वत १७२१ योजन ऊँचे कहे गये हैं। लवण समुद्र का पानी सतरह हजार योजन कहा गया है। जम्बूद्वीप से लवणसमुद्र में ९५ हजार योजन जाने पर धातकी खण्ड से ९५ हजार योजन लवण समुद्र में इधर आने पर दस हजार योजन का चक्रवाल पानी आता है। वह पानी सोलह हजार योजन ऊंचा गया है और पाताल में एक हजार योजन उंडा है। इस प्रकार सब मिला कर लवण समुद्र का पानी सतरह हजार योजन ऊंचा है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूमिभाग से सतरह हजार योजन से कुछ अधिक ऊंचा जाने पर इसके बाद जंघाचारण और विद्याचारणों की तिर्की गति होती है। असुरों के राजा असुरों के इन्द्र चमरेन्द्र का उत्पात पर्वत तिगिछि कूट १७२१ योजन का ऊंचा कहा गया है। इसी तरह असुरों के राजा असुरों के इन्द्र बलीन्द्र का उत्पात पर्वत रुचकेन्द्र कूट १७२१ योजन का ऊंचा कहा गया है। सतरह प्रकार का मरण कहा गया है। यथा - १. आवीचि मरण - प्रत्येक क्षण में आयु कर्म का जो क्षय होता जा रहा है वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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