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रथनेमीय - राजीमती का उद्बोधन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
धिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीविय-कारणा। वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे॥४३॥
कठिन शब्दार्थ - धिरत्थु - धिक्कार हो, अजसोकामी - हे अपयश के कामी, जीवियकारणा - असंयमी जीवन के लिए, वंतं - वमन किये हुए, आवेउं - भोगने की, सेयं - श्रेयस्कर, मरणं - मर जाना।
भावार्थ - हे अपयश के इच्छुक! तुझे धिक्कार हो, जो तू असंयम रूपी जीवन के लिए वमन किये हुए को पुनः पीना चाहता है। इस की अपेक्षा तो तेरे लिए मर जाना श्रेष्ठ है, क्योंकि संयम धारण कर के असंयम में जाना निन्दनीय है। ऐसे असंयमपूर्ण और पतित जीवन की अपेक्षा तो संयमावस्था में मृत्यु हो जाना अच्छा है।
अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवण्हिणो। मा कुले गंधणा होमो, संजमं णिहुओ चर॥४४॥
कठिन शब्दार्थ - भोगरायस्स - भोजराज की, अंधगवण्हिणो - अन्धकवृष्णि का, मा ' होमो - मत हो, गंधणा - गन्धन नामक, संजमं - संयम का, णिहुओ - निभृत (स्थिर), चर - आचरण कर।
भावार्थ - मैं राजीमती भोजराज (उग्रसेन की पुत्री हूँ) और तू अन्धकवृष्णि (समुद्रविजय का पुत्र) है। अतः गन्धन-कुल में उत्पन्न हुए सर्प के समान मत हो और निभृत - मन को स्थिर रख कर संयम का भली प्रकार पालन कर।
“जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि णारीओ। - वाया-विद्धव्व हडो, अट्टिअप्पा भविस्ससि॥४५॥
कठिन शब्दार्थ - जइ - यदि, काहिसि - करेगा, भावं - भाव को, जा जा - जिन जिन, दिच्छसि - देखोगे, णारीओ - स्त्रियों को, वायाविद्धुव्व हडो - वायु से कम्पित हड नामक वनस्पति की तरह, अट्ठिअप्पा - अस्थिर आत्मा वाले, भविस्ससि - हो जाओगे। ... भावार्थ - हे रथनेमि! तुम जिन-जिन स्त्रियों को देखोगे यदि उन-उन पर बुरे भाव करोगे तो वायु से प्रेरित हड नामक वनस्पति की भाँति अस्थिर आत्मा वाले हो जाओगे अर्थात् हे रथनेमि! जिस किसी भी स्त्री को देख कर यदि तुम इस प्रकार काम-मोहित हो जाओगे तो जैसे नदी के किनारे खड़ा हुआ हड़ नाम का वृक्ष जड़ मजबूत न होने के कारण हवा के झोंके से
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