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________________ भुओरगपरिसप्पा य, परिसप्पा दुविहा भवे । गोहाइ अहिमाइ य, एक्केक्का णेगहा भवे ॥ १८४ ॥ भुअ - भुजपरिसर्प, उरगपरिसप्पा उरः परिसर्प, गोहाइ - गोंह कठिन शब्दार्थ आदि, अहिमाइ - अहि आदि । भावार्थ - परिसर्प दो प्रकार के होते हैं - भुजपरिसर्प जैसे गोह, नकुल, चूहे आदि और उरः परिसर्प जैसे - अहि आदि सांप आदि और इन प्रत्येक के अनेकधा अनेक भेद होते हैं। - Jain Education International जीवाजीव विभक्ति - स्थलचर-वर्णन - - - लोएगदेसे ते सव्वे, ण सव्वत्थ वियाहिया । इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउव्विहं ॥ १८५ ॥ भावार्थ - वे सब स्थलचर जीव लोक के एक देश में व्याप्त हैं, सर्वत्र नहीं है, ऐसा कहा गया है। अब इसके आगे उन जीवों के चार प्रकार के काल विभाग को कहूँगा । संतई पप्पणाइया, अपज्जवसिया विय। ठि पडुच्च साइया, सपज्जवसिया वि य ॥१८६॥ भावार्थ प्रवाह की अपेक्षा स्थलचर जीव अनादि और अपर्यवसित अनन्त भी हैं और स्थिति की अपेक्षा सादि और सपर्यवसित - सान्त भी है । पलिओवमाइं तिण्णि उ, उक्कोसेण वियाहिया । आउठिई थलयराणं, अंतोमुहुत्तं जहण्णिया ॥ १८७॥ कठिन शब्दार्थ- पलिओवमाई - पल्योपम, तिण्णि - तीन । - भावार्थ- स्थलचर जीवों की जघन्य आयुस्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की कही गई है। - - विवेचन - तीन पल्योपम की स्थिति युगलिक की अपेक्षा समझनी चाहिए। पलिओवम्माई तिण्णि उ, उक्कोसेण वियाहिया । पुव्वकोडीपुहत्तेणं, अंतोमुहुत्तं जहण्णिया । कायठिई थलयराणं, अंतरं तेसिमं भवे ॥ १८८ ॥ भावार्थ पूर्व की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। उनका अन्तर काल निम्नलिखित है । · For Personal & Private Use Only ३६३ - स्थलचर जीवों की उत्कृष्ट कार्यस्थिति तीन पल्योपम सहित पृथक्त्व कोटि www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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