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उत्तराध्ययन सूत्र - छतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOm
कठिन शब्दार्थ - संठाणादेसओ - संस्थान की अपेक्षा, सहस्ससो - सहस्रश-हजारों, विहाणाई - भेद। ___ भावार्थ - इन पृथ्वीकाय के जीवों के वर्ण से, गन्ध से, रस से, स्पर्श से और संस्थान की अपेक्षा सहस्रश हजारों भेद होते हैं।
विवेचन - वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा पृथ्वीकाय के हजारों भेद होते हैं। गाथा में 'सहस्ससो' शब्द दिया इसका अर्थ हजारों ही नहीं किन्तु बहुत भेद होते हैं। संख्यात और असंख्यात तक भेद हो सकते हैं।
अप्काय का स्वरूप दुविहा आउजीवा उ, सुहमा बायरा तहा। पजत्तमपजत्ता, एवमेव दुहा पुणो॥५॥
भावार्थ - अप्काय के जीव दो प्रकार के हैं, सूक्ष्म और बादर। इसी प्रकार ये अप्काय . के जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से फिर दो प्रकार के हैं।
बायरा जे उ पजत्ता, पंचहा ते पकित्तिया। सुद्धोदए य उस्से य, हरतणू महिया हिमे॥८६॥ .
कठिन शब्दार्थ - पकित्तिया - कहे गये हैं, सुद्धोदए - शुद्धोदक, उस्से - ओस, हरतणू - हरतनु, महिया - महिका (धूअर), हिमे - हिम - बर्फ का पानी। ___ भावार्थ - जो बादर पर्याप्त हैं, वे पांच प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. शुद्धोदक (मेघ का जल अर्थात् आकाश से गिरा हुआ पानी) २. ओस ३. हरतनु (प्रातःकाल तृण के ऊपर रही हुई जल की बूंद) ४. महिका-धूंअर ५. हिम-बर्फ का पानी। ... एगविहमणाणत्ता, सुहुमा तत्थ वियाहिया।
सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा॥७॥
भावार्थ - उनमें सूक्ष्म अप्काय के जीव अनानात्व - भेद-रहित, एक ही प्रकार के कहे गये हैं और वे सूक्ष्म जीव सर्वलोक में व्याप्त हैं। बादर लोक के एक देश में व्याप्त हैं।
संतइं पप्पणाइया, अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साइया, सपजवसिया वि य॥८॥ भावार्थ - सन्तति की अपेक्षा अप्काय के जीव अनादि - जिसकी आदि (प्रारम्भ) नहीं
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