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________________ जीवाजीव विभक्ति - सिद्ध जीवों का स्वरूप .३६१ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - अज्जुणसुवण्णगमई - अर्जुन सुवर्णकमयी-श्वेत स्वर्णमयी, णिम्मलानिर्मल, सहावेणं - स्वभाव से, उत्ताणगच्छत्तयसंठिया - उत्तान (उलटे) छत्र के आकार की, भणिया - कही गई है, जिणवरेहिं - जिनेन्द्र देवों ने। ____भावार्थ - वह ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी - अर्जुनसुवर्णकमयी - श्वेत सोनेमयी है और स्वभाव से ही निर्मल हैं और उत्तान (ऊपर मुख वाले) छत्र के समान है। इस प्रकार जिनेन्द्रों द्वारा कही गई है। विवेचन - सोने का रंग प्रायः पीला होता है किन्तु अर्जुन सोना चांदी से भी विशेष सफेद और चमकदार होता है। वह पीले सोने की अपेक्षा दुगुनी तिगुनी कीमत वाला होता है। उसके आभूषणों में हीरा, पन्ना, माणक आदि जड़े जाते हैं। वर्तमान में सफेद सोने को प्लेटिनम के रूप में कहा जाता है। संखंककुंदसंकासा, पंडुरा णिम्मला सुहा। सीयाए जोयणे तत्तो, लोयंतो उ वियाहिओ॥६२॥ कठिन शब्दार्थ - संखंककुंदसंकासा - शंख, अंकरत्न और कुन्द पुष्प के समान, पंडुरा - श्वेत, सुहा - शुभ, सीयाए - सीता से, लोयंतो उ - लोक का अंत। . भावार्थ - वह शंख, अंकरत्न और कुन्द फूल के समान, पाण्डुरा - श्वेत, निर्मल और शुभ है। उस सीता (ईषत्प्राग्भारा) पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त कहा गया है। - विवेचन - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह पर्यायवाची नाम हैं यथा - १. ईषत् २. ईषत्प्राग्भारा ३. तन्वी ४. तनुतरा ५. सिद्धि ६. सिद्धालय ७. मुक्ति ८. मुक्तालय. ६. ब्रह्म १०. ब्रह्मावतंसक ११. लोक प्रतिपूर्ण १२. लोकाग्र चूलिका (समवायाङ्ग १२)। आवश्यक नियुक्ति की गाथा ६६० में - 'सीयाए जोयणम्मि लोगंतो' - इसमें आये हुए 'सीयाए' शब्द का अर्थ - इसकी वृत्ति में आचार्य हरिभद्र एवं आचार्य मलयगिरि ने - 'ईषत्प्राग्भारा' का दूसरा नाम 'सीता' किया है। जबकि प्रज्ञापना पद २ की टीका (पत्रांक १०७) में आचार्य मलयगिरिजी - 'सीयाए' का अर्थ 'निःश्रेणिगत्या' कर रहे है। ('सीयाए' इति निःश्रेणिगत्या योजने लोकान्तो भवति।) यही अर्थ उचित प्रतीत होता है। क्योंकि भगवती सूत्र के शतक १४ के उद्देशक ८ में सिद्धशिला से अलोक की दूरी देशोन योजन बताई है।' जो निःश्रेणि गति (कुछ तिर्छ से) एक योजन हो जाती है। इसलिए - उत्तराध्ययन सूत्र (अ. ३६ गाथा ६२ वीं) आदि में आए हुए 'सीयाए' का अर्थ 'निःश्रेणि गति' करना ही आगम सम्मत है। समवायाङ्ग (१२वाँ समवाय) उववाईय और पण्णवणा सूत्र (पद २) में - सिद्धशिला के बारह (१२) नाम दिए हैं। उसमें 'सीयाए' इस प्रकार का नाम उपलब्ध नहीं होता है। अतः इस नामान्तर की कल्पना करना उचित प्रतीत नहीं होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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