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________________ अनगार मार्गगति - अनगारमार्ग आचरण का फल-उपसंहार .३४१ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 को साधु मन से भी न चाहे अर्थात् मन, वचन और काया तीनों योगों से सत्कारादि की प्रार्थना (चाहना) नहीं करे। विवेचन - साधु साध्वी ऐसा मनोरथ कदापि न करे कि - "लोग मेरा चन्दन और पुष्पादि से अर्चन करे, मेरे सम्मुख मोतियों के स्वास्तिक आदि की रचना करें, मुझे विधिपूर्वक वंदना करें, वस्त्रादि विशिष्ट सामग्री देकर मेरी पूजा करें, मुझे श्रावकों से उपकरणादि की उपलब्धि हो अथवा मुझे आम!षधि आदि लब्धियां प्राप्त हो, लोग मुझे या मेरे द्वारा स्थापित संस्था को अर्थ प्रदान आदि करके मेरा सत्कार करे एवं अभ्युत्थान आदि से मेरा सम्मान करें, किसी भी तरह से मेरी प्रसिद्धि और पूजा प्रतिष्ठा हो, मेरी कीर्ति बढ़ें।" ___ अनगार के लिए मुख्य चार मार्ग सुक्कज्झाणं झियाएजा, अणियाणे अकिंचणे। वोसट्टकाए विहरेज्जा, जाव कालस्स पजओ॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - सुक्कज्झाणं - शुक्लध्यान, झियाएज्जा - ध्यावे, अणियाणे - अनिदान - निदान रहित, अकिंचणे - अकिञ्चन, वोसट्टकाए - व्युत्सृष्टकाय - शरीर का व्युत्सर्ग करके, जाव- जब तक, कालस्स - काल का, पज्जओ - पर्याय। भावार्थ - जब तक मृत्यु का पर्याय-अवसर-समय प्राप्त हो तब तक (यावज्जीवन) अनिदान - नियाणा रहित, अकिञ्चन - परिग्रह-रहित तथा शरीर के ममत्व भाव से भी रहित हो कर शुक्ल-ध्यान ध्यावे और अप्रतिबद्ध विहार करे। . . . विवेचन - साधु जीवन पर्यंत - १. शुक्लध्यान में लीन रहे २. इहलौकिक-पारलौकिक सुख भोग आदि वांछा रूप निदान नहीं करे ३. द्रव्य-भाव परिग्रह को छोड़ कर अकिंचन वृत्ति को अपनाएं और ४. काया के ममत्व का त्याग करके अप्रतिबद्ध होकर विचरे। ... अनगारमार्ग आचरण का फल - उपसंहार णिजूहिऊण आहारं, कालधम्मे उवट्ठिए। जहिऊण माणुसं बोंदि, पहू दुक्खा विमुच्चइ॥२०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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