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कर्मप्रकृति - कर्मों के प्रदेशाग्र
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कठिन शब्दार्थ - उच्चं - उच्च, णीयं - नीच।
भावार्थ - गोत्र-कर्म, उच्च और नीच के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। उच्च-गोत्र के आठ भेद हैं इसी प्रकार नीच-गोत्र भी आठ प्रकार का कहा गया है अर्थात् जाति, कुल, बल, तप, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ और रूप, ये आठ भेद उच्च गोत्र के हैं और ये ही आठ भेद नीच-गोत्र के हैं। इन आठ बातों का मद नहीं करने से उच्च गोत्र का बंध होता है और आठ बातों का मद करने से नीच गोत्र का बंध होता है।
अंतराय कर्म की उत्तर प्रकृतियां . दाणे लाभे य भोगे य, उवभोगे वीरिए तहा।
पंचविहमंतरायं, समासेण वियाहियं ॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - दाणे - दानान्तराय, लाभे - लाभान्तराय, भोगे - भोगान्तराय, उवभोगे - उपभोगान्तराय, वीरिए - वीर्यान्तराय।
भावार्थ - अन्तराय कर्म संक्षेप से पांच प्रकार का कहा गया है। यथा - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय, ये पांच भेद हैं।
एयाओ मूलपयडीओ, उत्तराओ य आहिया। पएसग्गं खित्त-काले य, भावं च उत्तरं सुण॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - एयाओ - ये, मूलपयडीओ - मूल प्रकृतियां, उत्तराओ - उत्तर प्रकृतियां, पएसग्गं - प्रदेशाग्र, खित्त - क्षेत्र, काले - काल, भावं - भाव, उत्तरं - आगे, सुण - सुनो। . . . .
भावार्थ - ये मूल प्रकृतियाँ हैं और उत्तर प्रकृतियाँ अर्थात् आठ कर्म और उनके भेद कहे गये हैं, अब आगे इनके प्रदेशाग्र, क्षेत्र, काल और भाव के स्वरूप का वर्णन किया जाएगा, जिसको ध्यान पूर्वक सुनो।
___ कर्मों के प्रदेशाग्र सव्वेसिं चेव कम्माणं, पएसग्गमणंतगं। गंठिय-सत्ताइयं, अंतो सिद्धाण आहियं ॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - सव्वेसिं - सभी, कम्माणं - कर्मों के, पएसग्गं - प्रदेशाग्र - कर्म परमाणु पुद्गल दलिक, अणंतगं - अनन्त, गंठिय सत्ताइयं - ग्रन्थिक सत्त्वातीत अर्थात्
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