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________________ प्रमादस्थान - वीतरागता में बाधक प्रयत्न से सावधान . २६५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - काम-गुणों में आसक्त जीव क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा (घृणा), अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और विविध भाव - नाना प्रकार के हर्ष - विषादादि भावों को और वैसे ही इस प्रकार के अनेक रूपों को तथा क्रोधादि से उत्पन्न होने वाले अन्य अनेक दुर्गतिदायक संताप विशेषों को प्राप्त होता है। इसी कारण वह कामासक्त जीव करुणापात्र, अत्यन्त दीन, ह्रीमान्-लज्जित और अप्रीतिपात्र बन जाता है। विवेचन - प्रस्तुत चार गाथाओं (क्र. १०० से १०३) में स्पष्ट किया गया है कि इन्द्रियों और मन के विषयों के विद्यमान रहते तथा कामभोगों तथा क्रोधादि कषायों एवं हास्यादि नोकषायों के रहते हुए भी वीतरागी पुरुष को न तो वे किंचित् भी दुःख दे सकते हैं और न ही मन, वचन, काया में विकार उत्पन्न कर सकते हैं। वे उसी को दुःखी करते हैं जो रागी और द्वेषी हो तथा उसी के मन, वचन, काया में विकार उत्पन्न कर सकते हैं। . वीतरागता में बाधक प्रयत्न से सावधान कप्पं ण इच्छिज सहायलिच्छू, पच्छाणुतावे ण तवप्पभावं। एवं बियारे अमियप्पयारे, आवजइ इंदिय-चोर-वस्से॥१०४॥ कठिन शब्दार्थ - इच्छिज्ज - इच्छा न करे, कप्पं - कल्प-शिष्य की, सहायलिच्छूसहायता की लिप्सा से, पच्छाणुतावे ण - दीक्षा लेने के पश्चात् अनुताप-पश्चात्ताप नहीं करके, तवप्पभावं - तप के प्रभाव की भी, अमियप्पयारे - अपरिमित प्रकार के, वियारे - विकारों को, इंदिय-चोर-वस्से - इन्द्रिय रूपी चोरों के वशीभूत होकर। भावार्थ - अपनी सेवादि कराने के लिए सहायक को चाहने वाला होकर, कल्प-शिष्य की भी इच्छा न करे। व्रत तथा तप अंगीकार करने के बाद अनुपात (पश्चात्ताप) नहीं करे और न तप के प्रभाव की इच्छा करे क्योंकि इस प्रकार इन्द्रियाँ रूपी चोरों के वशीभूत बना हुआ जीव अमित प्रकार - अनेक प्रकार के विकारों को प्राप्त होता है। तओ से जायंति पओयणाई, णिमज्झिउं मोहमहण्णवम्मि। सुहेसिणो दुक्ख-विणोयणट्ठा, तप्पच्चयं उज्जमए य रागी॥१०५॥ कठिन शब्दार्थ - जायंति - उत्पन्न होते हैं, पओयणाई - अनेक प्रयोजन, णिमज्जिउंडूबाने के लिये, मोहमहण्णवम्मि - मोह रूपी सागर में, सुहेसिणो - सुखाभिलाषी, दुक्खविणोयणट्ठा - दुःखों के विनोदन - निवारण के लिए, तप्पच्चयं - उनके निमित्त से, उज्जमएउद्यम करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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