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________________ प्रमादस्थान - रस के प्रति राग-द्वेष से मुक्त होने का उपाय २८५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 दुर्दान्त दोष से उसी क्षण में दुःख को प्राप्त होता है किन्तु इसमें रस का कुछ भी अपराध नहीं है किन्तु वह जीव अपने ही दोष से स्वयं दुःखी होता है। . एगंतरत्ते रुइरे रसम्मि, अतालिसे से कुणइ पओसं। .. दुक्खस्स संपील-मुवेइ बाले, ण लिप्पइ तेण मुणी विरागो॥६५॥ भावार्थ - जो जीव मनोज्ञ रस में एकान्तरक्त - अत्यन्त अनुरक्त होता है और अमनोज्ञ रस में द्वेष करता है वह बाल अज्ञानी जीव अत्यन्त दुःख और पीड़ा को प्राप्त होता है किन्तु वीतराग मुनि उस दुःख से लिप्त नहीं होता है। रसाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ गरूवे। चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलि?॥६६॥ कठिन शब्दार्थ - रसाणुगासाणुगए - रसानुगाशानुगत। भावार्थ - रसानुगाशानुगत - रस की आशा से उसका अनुसरण करने वाला अर्थात् रस की आसक्ति में फँसा हुआ जीव अनेक प्रकार के चराचर - त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है और वह बाल अज्ञानी जीव उन जीवों को अनेक उपायों से परिताप उपजाता है तथा अपने ही स्वार्थ में तल्लीन बना हुआ वह क्लिष्ट-कुटिल जीव अनेक जीवों को पीड़ित करता है। रसाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसण्णिओगे। वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥६७॥ कठिन शब्दार्थ - रसाणुवाएण - रसानुपात। भावार्थ - रसानुपात - रस में आसक्त एवं परिग्रह से मूर्छित बने हुए जीव को उस पदार्थ को उत्पन्न करने में, उसकी रक्षा करने में, सम्यक् प्रकार से उपयोग करने में और उसका विनाश हो जाने पर तथा वियोग हो जाने पर कैसे सुख प्राप्त हो सकता है? उसका उपभोग करने के समय में भी उसे तृप्ति न होने के कारण दुःख ही होता है। रसे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो ण उवेइ तुडिं। अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययइ अदत्तं ॥६॥ भावार्थ - रस में अतृप्त बना हुआ और रस के परिग्रह में आसक्त एवं विशेष आसक्त बने हुए जीव को संतोष नहीं होता है। असंतोष रूपी दोष से दुःखी बना हुआ तथा लोभ से मलिन चित्त वाला जीव दूसरों की बिना दी हुई चीजों को ग्रहण करता है (चोरी करता है)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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