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________________ चरणविधि - चौथा बोल २५१ .. 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - जो साधु तीन दण्ड, तीन गारव तथा तीन शल्य इनको नित्य छोड़ देता है, वह मण्डल-संसार में परिभ्रमण नहीं करता है। विवेचन - दण्ड तीन प्रकार के कहे हैं - १. मन दण्ड २. वचन दण्ड और ३. काय दण्ड। मन, वचन, काया जब दुष्प्रवृत्ति में लगते हैं तब दण्ड रूप हो जाते हैं। गौरव तीन कहे गये हैं - १. ऋद्धि गौरव - ऐश्वर्य का गर्व २. रस गौरव - स्वादिष्ट पदार्थों की प्राप्ति का गर्व और ३. साता गौरव - वैषयिक सुखों की प्राप्ति का गर्व। .. शल्य तीन प्रकार के हैं - १. माया शल्य - कपटयुक्त प्रवृत्ति २. निदान शल्य - भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए तप त्याग आदि आचरण करना - नियाणा करना ३. मिथ्यादर्शन शल्य - आत्मा की तत्त्वों के प्रति मिथ्या-सिद्धान्त के विपरीत दृष्टि। दण्ड, गौरव और शल्य से निवृत्त होना चारित्रविधि है। दिव्वे य जे उवसग्गे, तहा तेरिच्छमाणुसे। जे भिक्खू सहइ सम्मं, से ण अच्छइ मंडले॥५॥ कठिन शब्दार्थ - दिव्वे - देव संबंधी, उवसग्गे - उपसर्ग, तेरिच्छमाणुसे - तिर्यच और मनुष्य संबंधी, सहइ - सहन करता है। भावार्थ - जो साधु देव सम्बन्धी, तिर्यंच सम्बन्धी और मनुष्य सम्बन्धी उपसर्गों को सम्यक् • प्रकार से (समभाव पूर्वक) सहन करता है, वह मण्डल (संसार) में परिभ्रमण नहीं करता है। विवेचन - जो दैहिक मानसिक कष्टों का समीप में आकर सर्जन करते हैं, उन्हें उपसर्ग कहते हैं। उपसर्ग तीन प्रकार के कहे गये हैं - १. देवकृत उपसर्ग वह है जिसमें देवता, द्वेषवश, हास्यवश या परीक्षा के निमित्त कष्ट देते हैं। २. तिर्यचकृत उपसर्ग वह है जो तिर्यंचों द्वारा भय, विद्वेष, आहार, स्वरक्षण या अपने स्थान या संतान की सुरक्षा के निमित्त से कष्ट दिया जाता है। ____३. मनुष्यकृत उपसर्ग वह है जो मनुष्यों द्वारा हास्यवश, द्वेषवश या कुशील सेवन आदि के लिए कष्ट दिया जाता है। चौथा बोल विगहा-कसाय-सण्णाणं, झाणाणं च दुयं तहा। जे भिक्खू वज्जइ णिच्चं, से ण अच्छड़ मंडले॥६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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