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________________ ६२ *** उत्तराध्ययन सूत्र - तीसरा अध्ययन हितकर उपदेश विगिंच कम्मुणो हेडं, जसं संचिणु खंतिए । सरीरं पाढवं हिच्चा, उड्डुं पक्कमइ दिसं ॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - विगिंच - दूर करके, कम्पुणो- कर्मों के, हेउं हेतु को, जसं संयम यश को, संचिणु - संचित कर, खंतिए क्षमा से, सरीरं शरीर को, पाढवं - पार्थिव, हिच्चा - छोड़ कर, उड्ड - ऊर्ध्व, पक्कमइ - प्राप्त करता है, दिसं - दिशा को । भावार्थ - मनुष्य जन्म आदि के रोकने वाले कर्मों के हेतु - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोगों को पृथक् करो। क्षमा आदि दसविध यतिधर्म का सेवन करके संयम रूपी यश को अधिकाधिक बढ़ाओ। ऐसा करने वाला व्यक्ति इस पार्थिव औदारिक शरीर को छोड़कर ऊर्ध्व दिशा को (स्वर्ग अथवा मोक्ष को) प्राप्त करता है । विवेचन इस गाथा में मिथ्यात्व आदि कर्म बंध के हेतुओं को दूर कर, क्षमा आदि . दस - विध यति धर्म का सेवन कर संयम रूप यश का संचय करने का उपदेश दिया गया है। देवलोकों की प्राप्ति Jain Education International विसालिसेहिं सीलेहिं, जक्खा उत्तरउत्तरा । महासुक्का व दिप्पंता, मण्णंता अपुणच्चवं ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ यक्ष-देव, उत्तरउत्तरा प्रधान से प्रधान, महासुक्का - महाशुक्ल, व प्रकाशमान होकर, मण्णंता मानते हुए, अपुणच्चवं - पुनः च्यवन नहीं होता । - भावार्थ - अनेक प्रकार के व्रत अनुष्ठानों का पालन करने से जीव यहाँ का आयुष्य पूरा कर उत्तरोत्तर प्रधान विमानवासी देव होता है। वह महाशुक्ल अर्थात् अत्यन्त उज्वल, सूर्य चन्द्रमा के समान प्रकाशमान होता हुआ और 'यहाँ से फिर दूसरी गति में नहीं चलूँगा ।' - इस प्रकार मानता हुआ वहाँ रहता है। विवेचन - जब शुभ कर्म शेष रह जाते हैं तो जीव को देवलोक की प्राप्ति होती है। इस गाथा में स्वर्गप्राप्त जीव की अवस्था का वर्णन किया गया है। देवों के विमान सूर्य और चन्द्र की तरह प्रकाश करते हैं। वे देव अति दीर्घायु पल्योपम सागरोपम और अति सुख प्राप्ति के - - - For Personal & Private Use Only विसालिसेहिं - नाना प्रकार के, सीलेहिं - शीलों से, जक्खा की तरह, दिप्पंता www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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