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________________ ★★★★★★★★★★★★★★★ पापश्रमणीय सण्णाइपिंडं जेमेइ, णेच्छइ सामुदाणियं । गिहिणिसेज्जं च वाहेइ, पावसमणे त्ति वुच्चइ ॥१६॥ · - - पापश्रमण का स्वरूप ****** - कठिन शब्दार्थ सण्णाइपिंडं - स्वज्ञातिपिण्ड, जेमेड़ - ग्रहण करता है, णेच्छड़ . नहीं चाहता है, सामुदाणियं - सामुदायिक भिक्षा ग्रहण करना ( अनेक घरों से गृहीत भिक्षा अथवा अज्ञात-अपरिचित घरों से थोड़ी थोड़ी लाई हुई भिक्षा), गिहिणिसेज्जं - गृहस्थ की शय्या - निषद्या पर, वाहेइ - बैठता है । भावार्थ - जो स्वज्ञातिपिंड अर्थात् अपनी जाति एवं सगे-सम्बन्धियों के घर से ही आहार लेता है, सामुदानिकी भिक्षा नहीं लेना चाहता और गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह पापश्रमण कहलाता है। Jain Education International - विवेचन - अपने ज्ञातिजनों से लाया हुआ आहार ही करने वाला साधु चाहे प्रतिदिन एक ही घर से आहार न लेता हो, किंतु ज्ञाति बन्धु, स्वजन आदि परिचित होने से उनके द्वारा साधु 1. के निमित्त सरस स्वादिष्ट आहार तैयार करना सम्भव है, उससे औद्देशिक दोष तो है ही, छह काया के आरम्भ का दोष भी लगता है। साथ ही लगातार सरस स्वादिष्ट आहार करने से अनेक विकार व उदर व्याधियां भी उत्पन्न हो जाती है अतः स्वज्ञातिपिण्डभोजी श्रमण को पापश्रमण कहा गया है। ३०१ ✰✰✰✰✰✰ एयारिसे पंचकुसीलसंवुडे, रूवंधरे मुणिपवराण हेट्ठिमे । अयंसि लोए विसमेव गरहिए, ण से इहं णेव परत्थ लोए ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - एयारिसे - इस प्रकार, पंचकुसीलेसंवुडे - पांच कुशील साधुओं के समान असंवृत, रूवंधरे - मुनिवेश का धारक, मुणिपवराण - श्रेष्ठ मुनियों में, हेट्ठिमे निकृष्टतम, विसमेव विष की तरह, गरहिए - गर्हित- निन्दनीय, ण इहं न तो इसलोक का, णेव परत्थ लोए - न ही परलोक का । - भावार्थ इस प्रकार पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और स्वच्छंद, इन पांच प्रकार के कुशीलों का अनुसरण करने वाला, संवर से रहित मुनि का वेष धारण करने वाला, श्रेष्ठ मुनियों में हीन अर्थात् संयम का यथावत् पालन करने वाले मुनियों की अपेक्षा हीन वह मुनि इस लोक में विष (जहर) के समान निंदनीय होता है और उसका न तो यह लोक सुधरता है और न परलोक सुधरता है अर्थात् उसके दोनों लोक बिगड़ जाते हैं। シ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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