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________________ २७८ उत्तराध्ययन सूत्र - सोलहवां अध्ययन **********************************kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk इस प्रकार की स्त्री कथा करने से या सुनने से ब्रह्मचर्य का आंशिक या पूर्ण रूप से भंग होने की संभावना बनी रहती है। तृतीय ब्रह्मचर्य समाधि स्थान - एक आसन वर्जन ____णो इत्थीहिं सद्धिं सण्णिसेज्जागए विहरित्ता हवइ से णिग्गंथे। तं कहमिति चे? आयरियाह-णिग्गंथस्स खलु इत्थीहिं सद्धिं सण्णिसेज्जागयस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खलु णो णिग्गंथे इत्थीहिं सद्धिं सण्णिसेज्जागए विहरेज्जा॥३॥ ___ कठिन शब्दार्थ. -इत्थीहिं सद्धिं - स्त्रियों के साथ, सण्णिसेजागए - एक आसन पर, णो विहरित्ता हवइ - नहीं बैठता है। भावार्थ - जो स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठता वह निर्ग्रन्थ है। ऐसा क्यों? आचार्य फरमाते हैं - जो ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ स्त्रियों के साथ एक आसन पर बैठता है उसको ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश हो जाता है अथवा उन्माद पैदा हो जाता है या दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है अथवा वह केवलिप्ररूपित. धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। विवेचन - 'इत्थीहिं सद्धिं सण्णिसेज्जागए' की व्याख्या बृहद वृत्तिकार ने दो प्रकार से की है - १. स्त्रियों के साथ सन्निषधा - पट्टा, चौकी, शय्या, बिछौना, आसन आदि पर न बैठे। २. स्त्री जिस स्थान पर बैठी हो उस स्थान पर तुरन्त न बैठे, उठने पर भी एक मुहूर्त (दो घड़ी) तक उस स्थान या आसनादि पर न बैठे। ___एक आसन पर बैठने से नारी का संस्पर्श या शरीर संसर्ग होने से विषय रस की जागृति होती है जिससे ब्रह्मचर्य व्रत भंग होने की आशंका रहती है। परस्पर अलगाव मिटने से ऐसे साधक या साधिका के विषय में लोग आशंकावश मिथ्या भ्रम फैला सकते हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेद के पुद्गलों का परस्पर ऐसा आकर्षण है कि उन पुद्गलों के स्पर्श से परस्पर विकार उत्पन्न होने की संभावना रहती है। अतः ब्रह्मचारी को वेद स्वभाव को ध्यान में रख कर न तो नारी का स्पर्श करना चाहिए और न ही उसके साथ एक आसन पर बैठना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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