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________________ द्वितीय वक्षस्कार भगवान् ऋषभ : गृहवास : श्रमण-दीक्षा शंख, स्फटिक, प्रवाल-‍ -मूंगे, माणिक्य आदि लोक के सारभूत पदार्थों का परित्याग कर, अस्थिर होने के ये पदार्थ वस्तुतः जुगुप्सनीय एवं त्याज्य हैं, ऐसा सोचते हुए उनसे ममत्व हटाकर, उनका अपने गौत्र एवं पारिवारिकजनों में बंटवारा कर सुदर्शन नामक पालखी में आरूढ़ हुए । देव-मानव-असुर परिषदें उनके साथ चली। शांखिक - शंखवादक, चाक्रिक - चक्र घुमाने वाले, लांगलिक, मुख - मांगलिक - मंगलोपचारक, पुष्यमानव-मागध, चारण, भाट आदि प्रशस्तिगायक, वर्द्धमानक - औरों के कंधों पर बैठे हुए मनुष्य, आख्यायक शुभाशुभ कथन करने वाले, ख बास पर चढ़कर क्रीड़ा - कौतुक दिखाने वाले, मंख - चित्रपट प्रदर्शित कर जीवन निर्वाह करने वाले, घांटिक घंटे बजाने वाले पुरुष उनके पीछे-पीछे चले। वे अनुगामी जन अभीप्सित कमनीय, प्रिय, मनोरम, मनोज्ञ, उदार शब्द एवं अर्थापेक्षया विशद, कल्याणसूचक, शिव उपद्रव शून्य, धन्य- स्पृहणीय, मंगलकारी, सश्रीक - अनुप्रास आदि अलंकारों की शोभा से समायुक्त एवं मन के लिए शांतिप्रद, पुनरुक्ति दोष वर्जित, सैकड़ों प्रकार के अर्थों से समायुक्त वाणी द्वारा निरंतर उनका अभिनंदन तथा संस्तवन करने लगे, नंद! - वैराग्य के वैभव से समानंदित अथवा जगत् को उल्लसित करने वाले, भद्र! जन-जन के कल्याण-विधायक प्रभुवर! आपकी जय हो । आप धर्म प्रभाव से परिषहों उपसर्गों से सर्वथा निर्भय रहें । आकस्मिक भय - संकट आदि, विपत्ति, भैरव सिंह आदि हिंस्र जनित भीति अथवा भयंकर भय एवं परिस्थितियों का सहिष्णुतापूर्वक सामना करने में समर्थ रहें। आपकी अध्यात्म साधना निर्बाध, निर्विघ्न गतिशील रहे। - Jain Education International - - सैंकड़ों नर-नारी अपने नेत्रों से पुनः पुनः उनके दर्शन कर रहे थे । यावत् आकुल नागरिकों के शब्दों से गगन मंडल परिव्याप्त था । उस स्थिति में भगवान् ऋषभ राजधानी के बीचों-बीच निकले यावत् सहस्रों नर-नारी उनका दर्शन कर रहे थे यावत् वे भवनों की सहस्रों पंक्तियों का लंघन करते हुए आगे बढ़े। वे सिद्धार्थवन की ओर गमनोद्यत थे। उस ओर जाने वाले राजमार्ग में पानी छिड़का हुआ था, वह झाड़-बुहार कर साफ कराया हुआ था । वह सुगंधित जल से संसिक्त था । जगह-जगह उसे फूलों से सजाया गया था । अश्वों, गजों तथा रथों एवं पदाति सैनिकों के पदाघात से भूमि पर जमी हुई धूल धीरे-धीरे ऊपर की ओर उड़ रही थी । यों वे चलते-चलते सिद्धार्थ उद्यान में स्थित उत्तम अशोकवृक्ष के निकट आए। वृक्ष के नीचे पालखी को रखवाया। उससे नीचे उतरे । स्वयं अपने आभूषण उतारे । फिर उन्होंने स्वयं आस्थापूर्वक केशों का चातुर्मुष्टिक लोच किया । For Personal & Private Use Only ७५ www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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