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________________ ५८ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र हे गौतम! ऐसा नहीं होता। क्योंकि उस समय के मनुष्य समृद्धि, सत्कार की अपेक्षा नहीं रखते। विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त विभिन्न पद अधिकार, सामर्थ्य एवं वैभव आदि के द्योतक हैं। किसी प्रदेश विशेष पर शासन करने वाला राजा, उसका ज्येष्ठ पुत्र युवराज, विपुल ऐश्वर्य एवं प्रभावापन्न पुरुष 'ईश्वर' परितुष्ट राजा द्वारा दिए गए स्वर्णपट्ट से अलंकृत पुरुष तलवर' भूस्वामी या जागीरदार माडंबिक, विशाल परिवारों के प्रमुख पुरुष कौटुंबिक, जिनके धन वैभव पुंज के पीछे हाथी भी छिप जाए, वैसे अति धनाढ्य जन-'इभ्य', वैभव और सद्व्यवहार से प्रतिष्ठापन्न पुरुष- श्रेष्ठी', राजा की चतुरंगिणी सेना के नियामक 'सेनापति', अनेक छोटे-बड़े. व्यापारियों के साथ व्यवसाय करने में समर्थ बड़े व्यापारी-सार्थवाह कहे जाते थे। ___ अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे दासेइ वा, पेसेइ वा, सिस्सेइवा, भयगेइ वा, भाइल्लएइ वा, कम्मयरएइ वा? णो इणढे समढे, ववगयआभिओगा णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो!। भावार्थ - हे भगवन्! क्या उस समय भरंत क्षेत्र में दास, प्रेष्य, शिष्य, भृतक, परिचारक, भागिक, निकटतम सहचर, कर्मकर होते हैं? हे गौतम! ऐसा नहीं होता। वे व्यपगत अभियोग-स्वामी-सेवक भाव रहित होते हैं। विवेचन - खरीदे हुए, मृत्यु पर्यन्त स्वामी की सेवा में रहने वाले स्त्री-पुरुष, दास-दासी, दूत्य, संदेश प्रेषण आदि में कार्यरत सेवक-प्रेष्य, अनुशासन में चलने वाले-शिष्य कहे जाते थे। जो सहभागिता में कार्य करते थे, उन्हें भागिक तथा जो आजीवन निकट सहचर होते थे, उन्हें भाईल्ल कहा जाता था। जो विशिष्टजनों, भूमिपतियों आदि के यहाँ पारिश्रमिक पर कार्य करते थे, उन्हें कर्मकर कहा जाता था। 'दास' और स्त्रियाँ माल-असवाब की तरह खरीदे-बेचे जाते थे। खरीददार का जीवन भर के लिए उन पर सर्वाधिकार होता था। अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे मायाइ वा, पियाइ वा, भायाइ वा, भगिणीइ वा, भज्जाइ वा, पुत्ताइ वा, धूआइ वा, सुण्हाइ वा? हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुयाणं तिव्वे पेम्मबंधणे समुप्पजइ। भावार्थ - हे भगवन्! क्या उस समय भरत क्षेत्र में माता-पिता, भाई-बहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्री, स्नूषा-पुत्रवधू (पतोहू) ये संबंधीजन होते हैं? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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