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________________ द्वितीय वक्षस्कार - अवसर्पिणी का प्रथम आरक : सुषम-सुषमा (२७) तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ तहिं तहिं मत्तंगा णामं दुमगणा पण्णत्ता, जहा से चंदप्पभा जाव छण्णपडिच्छण्णा चिटुंति, एवं जाव अणिगणा णामं दुमगणा पण्णत्ता। शब्दार्थ - दुमगणा - वृक्ष समूह। . भावार्थ - उस समय भरतक्षेत्र में अनेक स्थानों पर मत्तांग नामक वृक्ष समूह थे, ऐसा बतलाया गया है। वे चन्द्र की प्रभा के समान यावत् छायित-प्रतिच्छायित-सघन रूप में छाए हुए एवं विस्तार से फैले हुए थे यावत् अनग्न पर्यन्त (सभी दस प्रकार के) वृक्ष वहाँ प्रतिपादित हुए हैं। __ विवेचन - प्राचीन, प्रागेतिहासिक भारतीय वाङ्मय की वैदिक, जैन आदि परंपराओं में वृक्षों का विशेष रूप से उल्लेख होता रहा है। यहाँ वर्णित वृक्ष उन विशिष्ट दिव्य शक्ति से संपन्न पादपों के सूचक रहे हैं, जो सभी अभीप्सित वस्तुओं को प्रदान करने में सक्षम थे। जैनागम सम्मत, यौगलिक काल में सभी मनुष्यों की आवश्यकताएँ ऐसे वृक्षों से पूर्ण होती थीं। आवश्यकता पूर्ति के लिए मनुष्यों को कोई उद्यम नहीं करना होता था। उसे अकर्मभूमि काल कहा गया है। वृक्षों के दस प्रकार बतलाए गए हैं। यहाँ प्रथम मत्तांग तथा अन्तिम अनग्न का ही उल्लेख हुआ है। इन सभी के नाम एवं विशेषताएँ निम्नांकित हैं - १. मत्तांग - मादक रस प्रदायक। २. भृत्तांग - विविध भोजन एवं पात्र प्रदान करने वाले। ३. त्रुटितांग - अनेक प्रकार के वाद्य यंत्रप्रद। ४. दीपशिखा - प्रकाश देने वाले। . ५. ज्योतिषिक - उद्योत प्रदायक। ६. चित्रांग - माला आदि देने वाले। ७. चित्ररस - विभिन्न प्रकार के रस प्रदान करने वाले। ८. मण्यंग - मणियाँ एवं आभूषण देने वाले। ६. अनग्न - नग्नता को ढांपने वाले-वस्त्र संबंधी आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाले। १०. गेहाकार - आवास स्थान प्रदान करने वाले। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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