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________________ सप्तम् वक्षस्कार - चतुर्विधरुपधारी विमान वाहक देव ४६७ कंधे पर उगे हुए विस्तीर्ण बालों की पंक्ति से विभूषित, अलंकृत, ललाट पर दर्पण जटित आभूषण धारण किए हुए, मुख पर लटकते हुए, लूम्बे, चंवर एवं दर्पण जटित विविध आभूषणों से सुशोभित कटियुक्त, तपनीय स्वर्ण जैसे खुर, जीभ एवं तालुयुक्त, तपनीय स्वर्ण निर्मित रस्सों से जुते हुए, इच्छानुरूप यावत् मनोरम गति से चलने वाले अपरिमित बल, शक्ति तथा पुरुषार्थ एवं पराक्रम युक्त, उच्च हिनहिनाहट ध्वनि से आकाश को आपूरित तथा दिशाओं को सुशोभित करते हुए चार सहस्र अश्वरूपधारी देव विमान के उत्तरी पार्श्व को धारण किए हुए चलते हैं। गाथाएँ - चार-चार सहस्र सिंहरूपधारी, गजरूपधारी, वृषभरूपधारी एवं अश्वरूपधारी देव चन्द्र एवं सूर्य के विमानों को परिवहन किए चलते हैं। . . ग्रहों के विमानों को दो-दो सहस्र सिंहरूपधारी, गजरूपधारी, वृषभरूपधारी एवं अश्वरूपधारी- कुल आठ-आठ सहस्र देव परिहवन किए रहते हैं॥१॥ नक्षत्रों को एक-एक सहस्र सिंहरूपधारी, गजरूपधारी, वृषभरूपधारी एवं अश्वरूपधारी देवकुल चार सहस्र देव परिवहन किए चलते हैं। ___तारों के विमान ५००-५०० सिंहरूपधारी, गजरूपधारी, वृषभरूपधारी एवं अश्वरूपधारी देव - कुल दो सहस्र देव वहन किए चलते हैं॥२॥ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में आभियोगिक देवों द्वारा सिंहरूप, गजरूप, वृषभरूप एवं अश्वरूप विकुर्वित कर विमानों के परिवहन करने का जो वर्णन आया है, शब्द संरचना की दृष्टि से वह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। शब्दालंकारों के प्राचुर्य से परिपूर्ण, उत्कृष्ट प्राकृत गद्यकाव्य का यह अतिसुंदर उदाहरण है। सिंह, हस्ति, वृषभ, अश्व के अंगोपांगों का जो वर्णन किया गया है, उनमें जो उपमा आदि अलंकारों का अत्यन्त सुंदर रूप में प्रयोग हुआ है, वह वास्तव में अद्भूत है। एक-एक अंग-प्रत्यंग के साथ अनुप्रासों की विलक्षण छटा तो दृष्टिगत होती ही है किन्तु एक-एक उपमेय के उपमानों की एक लम्बी श्रेणी या पंक्ति वहाँ बड़े विशद रूप में संप्रयुक्त है, जिसे पढ़ कर सहृदय पाठक भाव विमुग्ध हो जाता है। काव्यशास्त्र में इसे 'मालोपमा' कहा गया है। उपमाओं की मालाओं सी वहाँ उपस्थापित है। इस वर्णन को पढ़ते समय उत्तरवर्ती संस्कृत साहित्य के अन्तर्गत कादम्बरी एवं उपमितिभवप्रपंचकथा जैसे अतिप्रशस्त काव्यों का स्मरण हो उठता है। प्रस्तुत वर्णन के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी जो गद्यात्मक, आलंकारिक विवेचन हुआ है, वह इसी कोटि का है। इससे प्रकट होता है कि प्राकृत में गद्य रचना का उत्तरोत्तर सुंदर विकास होता गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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