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________________ ३७० जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र यावत् नाट्य विधि दिखलाता है, उज्ज्वल, श्लक्ष्ण-चिकने, रजतमय, उत्तम रसयुक्त चावलों से भगवान् के आगे आठ-आठ मंगल प्रतीकों का आलेखन करता है। वे हैं - दर्पण, भद्रासन, वर्द्धमान, उत्तमकलश, मत्स्य, श्रीवत्स, स्वस्तिक एवं नंद्यावर्त॥१॥ इनका आलेखन कर, पूजा विधि संपादित करता है। गुलाब, मल्लिका, चंपक, अशोक, पुन्नाग, आम्रमंजरी, नवमल्लिका, नकुल, तिलक, कनेर, कंद, कुब्जग कोरंट पत्रक तथा दमनक के उत्तम, सुरभि युक्त पुष्पों को कचग्रह-प्रियतम द्वारा प्रेयसी के केशों को कोमलता पूर्वक ग्रहण किए जाने की तरह कोमलता पूर्वक पुष्पों को हाथ में लेता है तथा केशपाश से गिरते पुष्पों की तरह अच्युतेन्द्र के हाथों से ये धीरे-धीरे (भगवान् के चरणों में) गिरते हैं। इस प्रकार पंचरंगे पुष्पों का जानु प्रमाण जितना ढेर लग जाता है। चन्द्रकांत आदि रत्न, हीरे एवं नीलम से निर्मित चमकीले दण्ड युक्त स्वर्ण, मणि एवं रत्नमय चित्रांकित काले अगर, श्रेष्ठ कुंदरुक्क, लोबान तथा धूप से निकलती धुएं की लहर छोड़ते हुए नीलम निर्मित धूपदान को पकड़ कर सावधानी से धूप देता है। जिनेश्वर देव के सम्मुख-सात-आठ कदम चल कर, अंजलिबद्ध हाथों को मस्तक से लगाकर सस्वर, अर्थ युक्त १०८ महावृत्तों - छन्दबद्ध कविताओं द्वारा उनकी संस्तुति करता है। फिर अपना बायां घुटना ऊँचा करता है यावत् हाथ जोड़कर अंजलि बांधकर मस्तक पर लगाता है एवं कहता है - सिद्धगति पाने की दिशा में समुद्यत, ज्ञान तत्त्व, कर्मरूप, रज से रहित, श्रमण-तपश्चरण रूप श्रम में निरत, समाधि युक्त, कृतकृत्य, समयोगी - मनो वाक् काय योगों के समत्व से युक्त, शल्यकर्तन - कर्मरूपी कांटों को विध्वस्त करने वाले निर्भय, राग-द्वेष विवर्जित, ममत्व रहित, आसक्ति शून्य निःशल्य - अन्तर्द्वन्द्व रहित, अहंकार का मर्दन करने वाले, गुण-रत्न-शील ब्रह्मचर्य के समुद्र, अखण्ड ब्रह्मचारी अनंत, अप्रमेय - अपरिमित ज्ञान गुण समायुक्त, भावी चातुरंत चक्रवर्ती - चारों गतियों पर विजय प्राप्त करने वाले, उनका अन्त करने वाले धर्मचक्र के संप्रवर्तक, अर्हत्-परम गुणोत्कर्ष से जगत्पूज्य अथवा कर्मरिपुओं के आप नाशक हैं, इन शब्दों में वह भगवान् का वंदन, नमन करता है। उनसे न अधिक दूर न अधिक निकट समुचित दूरी पर स्थित होता हुआ यावत् सुश्रूषा, पर्युपासना करता है। __ अच्युतेन्द्र की ही तरह ईशानेन्द्र का वर्णन यहाँ योजनीय है। इसी प्रकार भवनपति, वाणव्यंतर एवं चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिष्क देव भी अपने-अपने परिवारों के साथ अभिषेक कृत्य निष्पादित करते हैं। तदनंतर देवेन्द्र, देवराज ईशानेन्द्र वैक्रियलब्धि द्वारा पांच ईशानेन्द्रों की विकुर्वणा करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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