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________________ चतुर्थ वक्षस्कार - नीलवान् वर्षधर पर्वत ३२५ बतलाया गया है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा एवं उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। इसका वर्णन निषध पर्वत के सदृश ही कहा गया है। इतना अन्तर है-इसकी जीवा दक्षिण में है तथा धनुपृष्ठ भाग उत्तर में है। उसमें केसरी नामक द्रह है। दक्षिण में उससे शीता महानदी निकलती है। वह उत्तरकुरु में बहती-बहती आगे यमक पर्वत तथा नीलवान उत्तर कुरु चन्द्र ऐरावत और माल्यवान द्रह को दो भागों में विभक्त करती हुई आगे बढ़ती है। उसमें ८४००० नदियाँ निकलती हैं। उससे आपूरित होकर वह भद्रशाल नामक वन में बहती है। जब मंदर पर्वत दो योजन दूर रहता है तब वह पूर्व की ओर मुड़ती है। नीचे माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत को विभाजित कर मंदर पर्वत के पूर्व में पूर्व विदेह क्षेत्र को दो भागों में बांटती हुई अग्रसर होती है। एक-एक चक्रवर्ती विजय में उसमें २८-२८ सहस्त्र नदियाँ मिलती हैं। यों कुल (२८०००४१६+८४०००) ५,३२,००० नदियों से आपूरित वह नीचे विजय द्वार की जगती को विदीर्ण करती हुई पूर्वी लवण समुद्र में मिल जाती है। अवशिष्ट वर्णन पहले की तरह योजनीय है। - नारीकांता नदी उत्तराभिमुख होती हुई बहती है। उसका वर्णन इसी के तुल्य है। इतना अंतर है - जब गंधापाती वत्त वैताढ्य पर्वत एक योजन दूर रह जाता है तब वह वहाँ से पश्चिम की ओर घूम जाती है। अवशिष्ट वर्णन पहले की तरह ग्राह्य है। उद्गम एवं संगम के समय उसके बहाब का विस्तार हरिकांता नदी के समान होता है। - हे भगवन्! नीलवान् वर्षधर पर्वत के कितने कूट कहे गए हैं? .. हे गौतम! उसके नौ कूट कहे गये हैं - १. सिद्धायतन कूट २. नीलवान् कूट ३. पूर्व विदेह कूट ४. शीता कूट ५. कीर्ति कूट ६. नारीकांता कूट ७. अपरविदेह कूट ८. रम्यक् कूट ६. उपदर्शन कूट। ये सभी कूट ५००-५०० योजन ऊँचे हैं। इनके अधिष्ठायक देवों की राजधानियाँ उत्तर में हैं। हे भगवन्! नीलवान् वर्षधर पर्वत का यह नाम किस कारण पड़ा है? । - हे गौतम! वहाँ नील आभामय यावत् परम समृद्धिशाली नीलवान् नामक देव निवास करता है यावत् संपूर्णतः नीलम रत्न निर्मित है। अतएव वह नीलवान् कहा जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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